Tuesday, 4 May 2021

मन फिर भी तो मन है

मैंने  अपनों  का बहुत  सुना
बहुत  सहा , बर्दाश्त किया
संबंधों पर ऑच न आने दी
हर संबंध  की हिफाजत  की
फिर भी कोई  समझ न पाया
मीन मेख निकालता ही रहा

हो सकता  है
वे अपनी आदत से मजबूर  हो
पर इसमें  मेरा  क्या कुसूर है
वे कोसते रहे  हमेशा
कभी  खुश  न हो पाएं
मैं रिश्ता निभाती रहीं
वे अंगारे  बिछाते  रहें
विषबुझे  तीर छोड़ते रहें
मन  आहत होता रहा
हम  जोड़ते रहे वे तोड़ते रहें

नहीं  विरासत में  कुछ भी मिला
तब भी हम  संतुष्ट  रहें
जमीन  - जायदाद  की तो छोड़ों
मुख से दो प्यार  के  बोल भी न बोले गएँ
कोसने के सिवा  आशीर्वाद  के हाथ भी न उठे

हम  सोचते रहें
इसमें  हमारी क्या गलती
चूक हमसे कहाँ  हुई
हम तो संभालते रहें परिवार को
मन को मारते रहे
तब भी इस त्याग का क्या सिला मिला

आज सब कुछ  ठीक-ठाक  है
सब व्यवस्थित है
फिर भी सबको गिला है
संबंधों  को  ढोते  - ढोते हम तो जर्जर हो गएँ
अब तो चलना - फिरना दूभर 
बीमारियों  का घर बना शरीर हमारा

क्या खोया  क्या पाया
इसमें  क्या सोचना
गया वक्त  क्या वापस आएगा
जो खुशियाँ  मिली  नहीं
जो सुख नसीब  में  लिखा नहीं
उस पर विचार  करना क्या

वक्त  तो ठहरा हुआ  था कभी हमारे  लिए
उस वक्त  से फिर आस कैसी
वसंत  में  ही जब पतझड़  आ जाएं
तब उस जीवन में  उल्लास कैसा

मन फिर भी तो मन है
भटकता  तो जरूर  है
अतीत  की सैर भी कराता है
व्यथित  भी करता है
भूलना चाहते हैं
स्मृतियाँ  कहाँ  पीछा छोड़ती है
स्मृतियों  के  भंवर जाल में  डूबते - उतराते  हैं
कभी रूदन कभी हास्य के साथ जीवन  जीते हैं।

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