पहले हम जाते थे गॉव
कितना अपनापन होता था
सुख- दुख भी साझा करते थे
और खाना - पीना भी
सफर में यात्री ऐसे घुलमिल जाते थे
जैसे वर्षों का साथ हो
दो- तीन दिन का समय बतियाते - खिलखिलाते कट जाता
कोई किसी के बच्चे को गोद में उठाता
तो कोई किसी के लिए बाहर से पानी लाता
सारे धर्म और जाति वाले बस रह जाते सहयात्री
कोई पुरी- ठोकवा के साथ भरवा करेला खिलाता
तो कोई घर से लाई हुई सेवइयॉ
बातचीत में घर - परिवार से भी परिचित
उतरते समय कोई किसी का सामान उतरवाता तो कोई किसी के बुजुर्ग को
किसी के बच्चे को कोई उंगली पकडवाता
तो कोई गोद में ले लेता
यहॉ तक कि जाते- जाते पता भी नोट कर लेते
निमंत्रण दे जाते अपने घर- गॉव आने का
अब तो डर लगता है
किसी के बच्चे को इसलिए पीट कर मार डाला गया कि वह मुसलमान था
उसकी ढाढी पहचान थी
आज एक हादसा हुआ कल कोई और निशाने पर होगा
भाईचारे की भावना कहॉ गई
लोक मूकदर्शक बने रहे और बच्चा पिटता रहा
अब तो रेल में भी धर्म और जाति को देखकर रिजर्वेशन कराना पडेगा
मंदिर ,मस्जिद ,गिरजाघर ने बॉट लिया भगवान को
धरती बॉटी ,सागर बॉटा ,मत बॉटो इंसान को
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Tuesday, 4 July 2017
रेलयात्रा भी बँट गई धर्म में
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