Friday, 19 September 2025

शुक्रिया कर दो

मैंने देखा आज 
एक खूबसूरत गुलाब का फूल
पेड़ - पौधों को झूमते
मैंने देखा आज 
सूर्योदय की लालिमा को 
कुनकुती धूप को 
मैंने देखा आज
शुभ्र नीले आकाश को 
बादल को भ्रमण करते 
मैंने देखा आज 
हवा को लहराते- झूमते 
समुद्र के उठान - चढ़ाव को 
मैंने देखा आज
चिड़ियों को चहचहाते 
मुर्गे को बाग देते 
सुबह का संदेश देते 
मैने देखा आज
अपने को आईने में 
मुस्करा कर बोला जैसे वो 
क्यों इतनी मायूसी क्यों चेहरे पर
फिर दिन हुआ है 
नया जीवन मिला है 
सांस चल रही है 
सब कुछ सही - सलामत है 
एक शुक्रिया तो अदा कर दो 
जिंदगी देने वाले का 

Thursday, 18 September 2025

हल हो जाएगा

हर सफर सुहाना हो 
हर मंजिल आसान हो 
हर राह समतल हो 
हर व्यक्ति सरल हो 
हर जीवन संघर्ष रहित हो 
ऐसा होना बिरला है 
डगर डग - डग करती जाती 
नैया डोलती रहती 
 फिर भी चलता रहता
रुकता नहीं यहाँ कुछ 
कोई किनारे पर पहुंच जाता 
कोई भंवर में फंस जाता 
हाथ- पैर तो सब मारते 
बस वह जारी रहें 
हल तो आ ही जाएंगा 

Wednesday, 17 September 2025

यह समर है

राह में कंकर - पत्थर न हो 
समतल - सपाट हो 
बाहर धूप न हो 
हमेशा छाया ही रहें
ऐसा अमूनन होता नहीं 
हम सोचते हैं 
जो होता नहीं 
कभी मन के अनुसार 
कभी विरुद्ध 
जाना पड़ता है
यह मजबूरी है 
जरुरत भी है 
पैर में छाले भी पड़ेगे 
पसीने से तर-बतर भी होगे 
चलना तो फिर भी है 
मंजिल पर जो पहुंचना है 
थक - हार बैठना 
यह जिंदगी का उसूल नहीं 
यह समर है 
इसे लड़ना ही पड़ेगा 

Tuesday, 16 September 2025

सजीव - निर्जीव

मैंने सोचना बंद कर दिया है 
मैंने बोलना बंद कर दिया है 
मैंने प्रतिक्रिया करना बंद कर दिया है
क्या कहना क्या सुनना 
सब व्यर्थ है 
मुझ पर किसी बात का असर नहीं पड़ता 
जो हो रहा है होने दो
मुझे किसी से क्या मतलब
मैं भावनाओं में नहीं बहना चाहती 
कोई सम्मान करें या अपमान करें 
क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है 
आग में हाथ डालेंगे तो जलना होगा 
यह जीवित का प्रमाण है 
विचार शून्य इंसान 
जिंदा शरीर में मुर्दा है 
सांस भले ही चल रही हो 
सजीव तो है 
उसमें और निर्जीव में क्या फर्क 

पाऊस आला मोठा

आ जा आ जा आ जा 
जा जा जा जा जा 
ये हैं बरसात राजा 
कभी आगमन की प्रतीक्षा
कभी जाने की गुहार 
न आए तो मुश्किल 
ज्यादा आए तो मुश्किल 
जीवनदाता भी ये
विनाशक भी ये 
न आए 
तो न जाने कितनी मन्नते 
कितने प्रलोभन 
कभी यज्ञ तो कभी हवन
ये किसी की नहीं सुनते 
अपनी मनमर्जी करते 
न आए तो सूखा
आए तो सुनामी
हर जीव को इनकी प्रतीक्षा
पेड़ - पौधे , पशु- पक्षी 
मानव तो है ही 
हर्षित भी करते हैं 
रुलाते भी हैं
पपीहा तो प्राण भी दे देता है 
मेढ़क की टर्र टर्र भाती है 
जब बरसात हो झर - झर
कुछ भी हो 
आना - जाना इनकी मर्जी 
प्यारे भी सबके 
इनसे मुख नहीं मोड़ सकते 
तभी तो गाना बालपन का
ये रे ये रे पावसा 
तुला देतो पैसा 
पैसा झाला खोटा 
पाऊस आला मोठा 

धैर्य रखें

बारिश होगी तब मोर नाचेगा 
वह भी उसकी इच्छा
फसल तैयार होगी 
अपने उसके समय पर
चाहे कितना खाद - पानी दें
बरसात होगी 
ऊपर वाले की इच्छानुसार 
किसान पर नहीं
आपकी इच्छानुसार कुछ हो तो अच्छा है 
न हो तो धैर्य रखने के सिवाय कुछ नहीं 
यह नहीं तो वह सही 
जो अपने हाथ में नहीं 
तब क्या 
वह ऊपर वाले पर
नियति पर
भाग्य पर
क्या पता था 
जिसका सुबह राज्याभिषेक होने वाला था
उसको 14 वर्ष के लिए वनवास 
जंगल- जंगल भटकना पड़ा
धैर्य रखें
माली सींचे सौं घड़ा 
ऋतु आए फल होए 

क्या विडंबना जीवन की

कल कुछ पढ़ा 
मन द्रवित हो गया 
एक मां का इकलौता बेटा चला गया 
वह फुड ब्लागर है 
प्यार से बेटे को कभी-कभार लड्डू भी बुलाती थी 
उसे लड्डू बहुत पसंद थे 
कंजूसी भी करती थी 
आज अफसोस कर रही है 
मैं बचत कर रही थी जिसके लिए 
वह ही इस दुनिया में नहीं रहा 
माता - पिता न जाने क्या-कुछ नहीं करते हैं 
बच्चों के भविष्य के लिए बचाकर रखते है 
अपनी इच्छाओं को मारते हैं
बच्चें की इच्छाओं का भी गला घोटते हैं 
ऐसा नहीं है कि इच्छा पूरा नहीं करना चाहते 
हर पालक अपनी सामर्थ्य नुसार अच्छा से अच्छा देने की कोशिश करते हैं 
सबकी स्थिति अलग- अलग होती है 
मन माफिक तो हर पालक नहीं दे सकता 
कभी-कभार बच्चे शिकायत भी करते हैं 
आपने यह नहीं किया वह नहीं किया 
उसके तो इतना करते हैं 
वह बुरा नहीं लगता 
जायज ही है 
ईश्वर से भी हम शिकायत करते ही हैं हम
बच्चें भी किससे करें 
रिश्ता वह अटूट रहता है 
अपनी ही मां सर्वश्रेष्ठ लगती है 
कर्तव्य कठोर निर्णय कराता है 
जिस बच्चें की मांग पूरी नहीं की 
उसके लिए ही 
वहीं अब नहीं है 
तब तो स्वाभाविक है 
यह सब किसके लिए 
जीना ही बोझ लगता है 
तब धन - संपत्ति का क्या 
जीना तो फिर भी पड़ता है 
बचत भी करनी पड़ती है 
कल किसी प्राकृतिक आपदा में भले सब खत्म हो जाए 
लेकिन घर तो बनाना पड़ेगा 
किसके आगे हाथ फैलाएंगा 
क्या विडंबना जीवन की 

Monday, 15 September 2025

शून्य

बहुत कुछ देखा 
बहुत कुछ सुना 
अंत में निष्कर्ष नहीं कुछ 
शून्य से शुरु 
शून्य पर खत्म 
हर गणित फेल 
यही तो जीवन का खेल

ईश्वर की शरण

मजबूरी का नाम महात्मा गांधी 
अंगूर न मिले तो खट्टे 
ये सिर्फ कहावत नहीं जीवन दर्शन है 
क्या करें 
रोते - बिसूरते रहे 
जीवन को दुखी बना दें
सबमें सामर्थ्य नहीं 
सबका भाग्य भी नहीं
जो है पास में 
उसी में खुशी ढूंढ लिया जाए 
संतुष्ट हो लिया जाए 
सबको इस जहां में सब कुछ नहीं मिलता 
कहीं जमीं तो कहीं आकाश नहीं मिलता 
हमारे हाथ में प्रयास करना है 
वह जी भर करें
सपने देखना बुरा नहीं है 
उसे साकार भी करना है 
फिर भी 
क्योंकि 
परंतु 
आड़े आ ही जाता है 
तब एक ही बात सही 
ईश्वर जो करता है वह अच्छा ही करता है 
हम नहीं जानते 
हमारे लिए क्या अच्छा
वह जानता है 
छोड़कर उसकी शरण लें 
आप अपना कर्म करें 
वह अपना आशीष देंगा 

Sunday, 14 September 2025

हिन्द की हिन्दी कुछ कहती

मैं आपकी अपनी प्यारी हिन्दी हूँ 
मैं तो दिलों को करीब लाती हूँ 
अंजान से परिचय करवाती हूं
एक - दूसरे से संपर्क का माध्यम हूँ 
मैंने बड़े कठिन दिन भी देखे हैं 
मैं स्वतंत्रता की साक्षी रही हूँ 
मुझे बहुत प्यार मिला 
सबने मुझे प्यार से अपनाया 
मैं कठिन भी नहीं हूँ 
सब मुझे समझ लेते हैं 
मैं कोई भेद-भाव नहीं करती 
तभी तो हर कोई मुझे अपना लेता है 
मुझे तोड़ा - मरोड़कर पेश किया जाता है 
तब भी मुझे बुरा नहीं लगता 
खुशी होती है कि 
हर भाषा ने मुझे अपने साथ मिलाया है 
सब तो मेरी बहने हैं 
भाषा विवाद का माध्यम नहीं 
संवाद का माध्यम है 
मुझे आपसी झगड़ों में मत घसीटे 
मुझे जबरन किसी पर न थोपा जाएं
जो मुझसे प्यार करता है 
मैं तो उसी की हो जाती हूँ 
मैं जन सामान्य के करीब रहना चाहती हूँ 
गीतों में गुनगुनाना चाहती हूँ 
हंसाना - गुदगुदाना चाहती हूँ 
मैं किसी से दुश्मनी नहीं चाहती हूँ 
सबको साथ लेकर चलना चाहती हूं
मैं तो भाषा हूँ 
मुझे किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है 
न किसी से ईर्ष्या- द्वेष हैं 
मैं तो आपकी वाणी में बसना चाहती हूँ 
मुझे स्वेच्छापूर्वक अपनाएं 
भरपूर प्यार दें 
मैं आपकी आभारी रहूंगी 
मैं तो आपसे ही हूँ 
मेरा अस्तित्व ही आपसे हैं 
हिन्द की हिन्दी 
आपसे यही कहती 
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभ कामना 

Saturday, 13 September 2025

रंग

जीवन का हर रंग तुम
तुम बिन जीवन बेरंग 
सतरंगी भी इंद्र धनुषी भी 
एक रंग जो सब पर भारी 
वह है प्यार का रंग 
इसी रंग में रंगी दुनिया सारी 
यह न हो तो जीवन में न रस
न उमंग- उत्साह
जीने की चाह 
कुछ करने का जज्बा 
सब आ जाता 
जिस पर यह चढ़ जाता 

अपनी तारीफ

दूसरों की तारीफ तो खूब करी मैंने 
हर छोटी से छोटी बात पर दूसरों की तारीफ करना
उनकी हौसला आफजाई करना 
आदत में शुमार 
क्या कभी अपनी भी तारीफ की है 
जो संघर्ष किया 
जो आंधी-तूफान के थपेड़े सहे 
जो बातें सुनी 
जो झुके लोगों के सामने 
मेहनत की मन को मारा 
चाहा था बहुत कुछ मिला नहीं 
हारे नहीं फिर भी 
जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए क्या नहीं किया 
हर जतन से संवारा 
भरपूर प्यार किया 
कभी-कभार कोसा भी 
ईश्वर को भी जन्मदाता को भी स्वयं को भी परिस्थिति को भी 
लड़ाई फिर भी लड़ी 
अब तो जरा अपनी भी प्रशंसा कर लें 
आपकी अपनी उपलब्धि पर नजर डाल लें 
दूसरों के भरोसे क्यों 
क्यों कोई आपकी प्रशंसा करेंगा 
ईर्ष्यालु दुनिया में समाज में 
आप तो अपनी कर सकते हैं 
अपने ऊपर गर्व 
अपनी काबिलियत पर
लड़ना सबके बस की बात नहीं 
हारना और जीतना भी नहीं 
जिगरा चाहिए 
वह है आपके पास 
तब देर किस बात की 
मुस्करा दीजिए 
अपनी पीठ स्वयं थपथपा दें 
अपनी तारीफ अपने ही कर लें 

Friday, 12 September 2025

कृपा उसकी

कुछ मत मांगों उससे 
बस भक्ति मांगों
किसी के हाथ में कुछ नहीं 
चिंता कर क्या कर लोगे 
लोगों के आगे झुक कर क्या हो जाएगा 
भक्ति भी शायद सबके भाग्य में नहीं 
उसकी कृपा हो तब ही 
जिंदगी को समझते समझते 
अब समझ आया 
जिस पर उसकी कृपा हो 
उसी का जीवन सार्थक है 
सौंप दो उन पर सब
जो करना हो करें 
वैसे भी तुम हो क्या 
तुम्हारा अस्तित्व ही क्या 
शून्य भी नहीं 
थक गए सोचते- सोचते 
हार गए प्रयास करते- करते 
सांस की डोर उसके हाथ में 
न हम रावण है न हिरण्याक्श्यप 
सर काट कर चढ़ा भी नहीं सकते 
न भक्ति की ताकत न सामर्थ्य 
एक दिन तो भूखा रहा नहीं जाता 
क्षण भर भी विचार पर नियंत्रण नहीं 
मन स्वयं के वश में नहीं 
बस एक ही रास्ता है समर्पण 
छोड़ो सब 
वैसे भी तुम्हारा क्या है 

Tuesday, 9 September 2025

चाल - चरित्र

क्या कमाया 
कितनी संपत्ति अर्जित की 
कितने बड़े लोगों से परिचय है 
गाड़ी - बंगला कितने 
कौन से ब्रांड के कपड़े 
कौन सा शहर में निवास 
देश में या विदेश
शिक्षा और रुतबा 
सैलरी और अर्निंग 
यह सब तो तभी मायने रखते हैं 
जब किरदार सही हो 
चरित्र की तुलना किसी से नहीं 
कोई जाने या न जाने 
व्यक्ति स्वयं जानता है 
अपने से झूठ नहीं बोल सकता 
चाल और चरित्र अच्छा हो 
बाकी तो सब आनी - जानी 

हमारी पीढ़ी

जिनका जन्म 1960, 1961, 1962, 1963, 1964, 1965, 1966, 1967, 1968, 1969, 1970, 1971, 1972, 1973, 1974, 1975, 1976, 1977, 1978, 1979, 1980 में हुआ है – खास उन्हीं के लिए यह लेख

यह पीढ़ी अब 45 पार करके 65- 70 की ओर बढ़ रही है।
इस पीढ़ी की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसने ज़िंदगी में बहुत बड़े बदलाव देखे और उन्हें आत्मसात भी किया।…

1, 2, 5, 10, 20, 25, 50 पैसे देखने वाली यह पीढ़ी बिना झिझक मेहमानों से पैसे ले लिया करती थी।
स्याही–कलम/पेंसिल/पेन से शुरुआत कर आज यह पीढ़ी स्मार्टफोन, लैपटॉप, पीसी को बखूबी चला रही है।

जिसके बचपन में साइकिल भी एक विलासिता थी, वही पीढ़ी आज बखूबी स्कूटर और कार चलाती है।
कभी चंचल तो कभी गंभीर… बहुत सहा और भोगा लेकिन संस्कारों में पली–बढ़ी यह पीढ़ी।

टेप रिकॉर्डर, पॉकेट ट्रांजिस्टर – कभी बड़ी कमाई का प्रतीक थे।

मार्कशीट और टीवी के आने से जिनका बचपन बरबाद नहीं हुआ, वही आखिरी पीढ़ी है।

कुकर की रिंग्स, टायर लेकर बचपन में “गाड़ी–गाड़ी खेलना” इन्हें कभी छोटा नहीं लगता था।

“सलाई को ज़मीन में गाड़ते जाना” – यह भी खेल था, और मज़ेदार भी।

“कैरी (कच्चे आम) तोड़ना” इनके लिए चोरी नहीं था।

किसी भी वक्त किसी के भी घर की कुंडी खटखटाना गलत नहीं माना जाता था।

“दोस्त की माँ ने खाना खिला दिया” – इसमें कोई उपकार का भाव नहीं, और
“उसके पिताजी ने डांटा” – इसमें कोई ईर्ष्या भी नहीं… यही आखिरी पीढ़ी थी।

कक्षा में या स्कूल में अपनी बहन से भी मज़ाक में उल्टा–सीधा बोल देने वाली पीढ़ी।

दो दिन अगर कोई दोस्त स्कूल न आया तो स्कूल छूटते ही बस्ता लेकर उसके घर पहुँच जाने वाली पीढ़ी।

किसी भी दोस्त के पिताजी स्कूल में आ जाएँ तो –
मित्र कहीं भी खेल रहा हो, दौड़ते हुए जाकर खबर देना:
“तेरे पापा आ गए हैं, चल जल्दी” – यही उस समय की ब्रेकिंग न्यूज़ थी।

लेकिन मोहल्ले में किसी भी घर में कोई कार्यक्रम हो तो बिना संकोच, बिना विधिनिषेध काम करने वाली पीढ़ी।

कपिल, सुनील गावस्कर, वेंकट, प्रसन्ना की गेंदबाज़ी देखी,
पीट सम्प्रस, भूपति, स्टेफी ग्राफ, अगासी का टेनिस देखा,
राज, दिलीप, धर्मेंद्र, जितेंद्र, अमिताभ, राजेश खन्ना, आमिर, सलमान, शाहरुख, माधुरी – इन सब पर फिदा रहने वाली यही पीढ़ी।

पैसे मिलाकर भाड़े पर VCR लाकर 4–5 फिल्में एक साथ देखने वाली पीढ़ी।

लक्ष्या–अशोक के विनोद पर खिलखिलाकर हँसने वाली,
नाना, ओम पुरी, शबाना, स्मिता पाटिल, गोविंदा, जग्गू दादा, सोनाली जैसे कलाकारों को देखने वाली पीढ़ी।

“शिक्षक से पिटना” – इसमें कोई बुराई नहीं थी, बस डर यह रहता था कि घरवालों को न पता चले, वरना वहाँ भी पिटाई होगी।

शिक्षक पर आवाज़ ऊँची न करने वाली पीढ़ी।
चाहे जितना भी पिटाई हुई हो, दशहरे पर उन्हें सोना अर्पण करने वाली और आज भी कहीं रिटायर्ड शिक्षक दिख जाएँ तो निसंकोच झुककर प्रणाम करने वाली पीढ़ी।

कॉलेज में छुट्टी हो तो यादों में सपने बुनने वाली पीढ़ी…

न मोबाइल, न SMS, न व्हाट्सऐप…
सिर्फ मिलने की आतुर प्रतीक्षा करने वाली पीढ़ी।

पंकज उधास की ग़ज़ल “तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया” सुनकर आँखें पोंछने वाली।

दीवाली की पाँच दिन की कहानी जानने वाली।

लिव–इन तो छोड़िए, लव मैरिज भी बहुत बड़ा “डेरिंग” समझने वाली।
स्कूल–कॉलेज में लड़कियों से बात करने वाले लड़के भी एडवांस कहलाते थे।

फिर से आँखें मूँदें तो…
वो दस, बीस… अस्सी, नब्बे… वही सुनहरी यादें।

गुज़रे दिन तो नहीं आते, लेकिन यादें हमेशा साथ रहती हैं।
और यह समझने वाली समझदार पीढ़ी थी कि –
आज के दिन भी कल की सुनहरी यादें बनेंगे।

हमारा भी एक ज़माना था…

तब बालवाड़ी (प्ले स्कूल) जैसा कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं था।
6–7 साल पूरे होने के बाद ही सीधे स्कूल भेजा जाता था।
अगर स्कूल न भी जाएँ तो किसी को फर्क नहीं पड़ता।

न साइकिल से, न बस से भेजने का रिवाज़ था।
बच्चे अकेले स्कूल जाएँ, कुछ अनहोनी होगी –
ऐसा डर माता–पिता को कभी नहीं हुआ।

पास/फेल यही सब चलता था।
प्रतिशत (%) से हमारा कोई वास्ता नहीं था।

ट्यूशन लगाना शर्मनाक माना जाता था।
क्योंकि यह “ढीठ” कहलाता था।

किताब में पत्तियाँ और मोरपंख रखकर पढ़ाई में तेज हो जाएँगे –
यह हमारा दृढ़ विश्वास था।

कपड़े की थैली में किताबें रखना,
बाद में टिन के बक्से में किताबें सजाना –
यह हमारा क्रिएटिव स्किल था।

हर साल नई कक्षा के लिए किताब–कॉपी पर कवर चढ़ाना –
यह तो मानो वार्षिक उत्सव होता था।

साल के अंत में पुरानी किताबें बेचना और नई खरीदना –
हमें इसमें कभी शर्म नहीं आई।

दोस्त की साइकिल के डंडे पर एक बैठता, कैरियर पर दूसरा –
और सड़क–सड़क घूमना… यही हमारी मस्ती थी।

स्कूल में सर से पिटाई खाना,
पैरों के अंगूठे पकड़कर खड़ा होना,
कान मरोड़कर लाल कर देना –
फिर भी हमारा “ईगो” आड़े नहीं आता था।
असल में हमें “ईगो” का मतलब ही नहीं पता था।

मार खाना तो रोज़मर्रा का हिस्सा था।
मारने वाला और खाने वाला – दोनों ही खुश रहते थे।
खाने वाला इसलिए कि “चलो, आज कल से कम पड़ा।”
मारने वाला इसलिए कि “आज फिर मौका मिला।”

नंगे पाँव, लकड़ी की बैट और किसी भी बॉल से
गली–गली क्रिकेट खेलना – वही असली सुख था।

हमने कभी पॉकेट मनी नहीं माँगा,
और न माता–पिता ने दिया।
हमारी ज़रूरतें बहुत छोटी थीं,
जो परिवार पूरा कर देता था।

छह महीने में एक बार मुरमुरे या फरसाण मिल जाए –
तो हम बेहद खुश हो जाते थे।

दिवाली में लवंगी फुलझड़ी की लड़ी खोलकर
एक–एक पटाखा फोड़ना – हमें बिल्कुल भी छोटा नहीं लगता था।
कोई और पटाखे फोड़ रहा हो तो उसके पीछे–पीछे भागना –
यही हमारी मौज थी।

हमने कभी अपने माता–पिता से यह नहीं कहा कि
“हम आपसे बहुत प्यार करते हैं” –
क्योंकि हमें “I Love You” कहना आता ही नहीं था।

आज हम जीवन में संघर्ष करते हुए
दुनिया का हिस्सा बने हैं।
कुछ ने वह पाया जो चाहा था,
कुछ अब भी सोचते हैं – “क्या पता…”

स्कूल के बाहर हाफ पैंट वाले गोलियों के ठेले पर
दोस्तों की मेहरबानी से जो मिलता –
वो कहाँ चला गया?

हम दुनिया के किसी भी कोने में रहें,
लेकिन सच यह है कि –
हमने हकीकत में जीया और हकीकत में बड़े हुए।

कपड़ों में सिलवटें न आएँ,
रिश्तों में औपचारिकता रहे –
यह हमें कभी नहीं आया।

रोटी–सब्ज़ी के बिना डिब्बा हो सकता है –
यह हमें मालूम ही नहीं था।

हमने कभी अपनी किस्मत को दोष नहीं दिया।
आज भी हम सपनों में जीते हैं,
शायद वही सपने हमें जीने की ताक़त देते हैं।

हमारा जीवन वर्तमान से कभी तुलना नहीं कर सकता।

हम अच्छे हों या बुरे –
लेकिन हमारा भी एक “ज़माना” था…!
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याद कर लो पूर्वजों को

आओ याद कर ले उन्हें 
जिनकी वजह से हम
उनका ही अंश
देखा तो नहीं सबको 
पर हमारी हर आदत में शुमार 
कोई किसी के जैसा 
किसी न किसी से अंग का हर भाग मिलता 
कभी ऑख कभी माथा कभी नाक
कभी विचार तो कभी बुद्धि 
वे न होते तो हम कैसे होते 
उपकार है जीवन देने का 
सब कुछ हमारे लिए छोड़ जाने का 
चले गए फिर भी आशीष देने आते 
एक पक्ष तो उनका 
वहाँ भी चैन नहीं उन्हें 
हमको देखना है हंसते - खेलते 
अपनी वंश बेल बढ़ते 
स्वर्ग में भी आपस में बतियाते होगे 
आए है तो 
कर लो उनसे प्रार्थना 
गलती- भूल - चूक की माफी मांग लो 
आशीष भी ले लो 
याद कर लो 
उनका उपकार है 
कर्ज है 
उसका एहसास रहें
अपने लोगों को याद कर लो 


सब ठीक है ??

उन्होंने कहा 
ज्यादातर किसी से घुलना - मिलना नहीं
ज्यादा किसी से बातचीत नहीं 
ठीक है 
ढंग से कपड़े यहनना 
लाज - शर्म औरत का गहना 
ठीक है 
किसी की बात का जवाब नहीं देना 
एक कान सै सुन दूसरे से निकाल देना 
ठीक है 
ज्यादा बाहर घूमना नहीं 
होटेल के खाने से अच्छा घर का खाना 
ठीक है 
घर का काम स्वयं करो
सेहत अच्छी रहेगी 
ठीक है 
नौकरी करने की क्या जरूरत 
अपना घर संभालों 
ठीक है 
ज्यादा हंसना - खिलखिलाना नहीं 
लोगों की नियत ठीक नहीं होती 
ठीक है 
एक बात समझ नहीं आई 
सब खराब है 
बस तुम जो सोचो 
वह सही 
तुमको सब करने की छूट 
हमें सांस लेने में भी सोचना 
कौन सी बात कब बुरी लग जाए 
सब ठीक है 
करते कहते उम्र निकल गई 
ठीक फिर भी कुछ नहीं लगता 
बेड़ी पड़ी हो तो जिंदगी खुश कैसे रहती 

मन तो मन है

अलविदा कहना होगा 
यह सोचा न था
जिसको जी जान से चाहा 
उससे अलगाव कैसे
करना पड़ा 
मजबूरी थी 
आज भी मन उसी जगह है 
जहाँ कभी छोड़ा था 
आसान नहीं होता 
कहने को तो अलविदा 
लेकिन सच में कभी हुआ ही नहीं 
जुड़ा है मन अभी भी 
मन तो मजबूर है 
कहना नहीं मानता 
समझाया पर समझता नहीं 
मन तो मन है ना 
उस पर तो वश नहीं 

Monday, 8 September 2025

International साक्षरता दिवस

दोस्त बना लो इनको 
कभी साथ नहीं छोड़कर जाएंगे 
हर सुख - दुख में साथ निभाएंगे 
आंधी-तूफान का सामना करने की हिम्मत देंगे 
संघर्षों में हार न मानने का हौसला देंगे 
जीवन पथ पर अग्रसर होने में मदद करेंगे 
इनको न कोई छीन सकता है 
न चुरा सकता है 
यह हमेशा साथ रहेंगी 
यह किताबें हैं 
यह शिक्षा है 
सबसे बड़ा धन है 
इसके साथ हो जाएं 
आपके और आपके परिवार का उद्धार हो जाएंगा 
जिसने इसकी कीमत पहचान ली 
उसने स्वयं को जान लिया 
नाता जोड़ लो 
जीवन सार्थक कर लो 

Sunday, 7 September 2025

राधे - राधे

सारा ब्रह्मांड मुझे तकता है राधा 
मैं तो केवल तुम्हें तकता हूँ 
तुम्हारे बिना तो मैं पूरा क्या आधा भी नहीं
तुम तो मेरे मन मंदिर में बसी 
तुम्हारें बिना तो कान्हा का जीवन रहा अधूरा 
संसार के स्वामी की स्वामिनी प्रिया 
बस हमेशा दिल में जलाएं रखना प्रेम का दिया
मैं तो चक्कर लगाता रहा 
तुम तो गोकुल में बैठी रही
वहीं से देखती रही 
मैं क्या इतना मजबूर 
आ न सका कभी फिर तुम्हारें समक्ष 
ईश्वर बना प्रियतमा को छोड़
कर्म का संदेश 
धर्म का निर्वाह 
सब कुछ करता रहा 
सामर्थ्य शाली था 
बस एक मलाल रह गया 
अपनी राधा को रानी न बना सका 
दिल में रखा साबित न कर सका 
तुम तो ज्यादा मजबूत 
तभी तो सबको अपने प्रेम के आगे किया नतमस्तक 
कथा मेरी और नाम अंत में तुम्हारा लिया जाता 
राधे राधे राधे राधे 

Wednesday, 3 September 2025

फसाना जिंदगी का

जिंदगी भी स्टेशन जैसी 
कभी गाड़ी का इंतजार करते रहे 
वह समय पर न आई
कभी वह आई तो हम लेट हो गए 
कभी इतनी भीड़ कि 
हम चढ़ न सके 
कभी ट्रैफिक में अटक कर छूट गई 
कभी बारिश- तूफान की 
कभी टिकट न मिला 
हम तो सोचते रह गए 
बैठे ही रह गए 
सामने से ही सीटी देती निकल गई 
हम हसरत भरी निगाह लिए 
हर मोड़ पर ताके 
वह शायद हमारे नसीब में ही न थी 
वह गुजरती रही 
दिन भी गुजरते रहे
उम्र भी बढ़ती रही 
अब न पकड़ने की ताकत बची
अब न भीड़ में जाने की हिम्मत 
अब तो बस इसी तरह रहना है 
यही जिंदगी का फसाना है 
कभी रोना कभी हंसना है