Sunday, 3 June 2018

अन्न और अन्नदाता

अन्न से पेट भरता
अन्न से जीवनयापन होता
अन्न खाकर हम बडे होते
शक्ति मिलती
मस्तिष्क का विकास होता
अन्न उपजाने के लिए माँ धरती
सीना चीर डालती है
तब जाकर गर्भ से बीज पौधा बन निकलता है
किसान देखभाल करता
सींचता है
पसीना बहाता है्
रात -दिन एक करता है
तब जाकर फसल लहलहाती है
अन्नदाता प्रसन्नता से झूम उठता है
पर जब वही फसल औने -पौने दाम मे बिकती है
तब वह बेबस हो जाता है
लागत भी नहीं आती
बिचौलियों की तो बन आती है
दो रूपया -एक रूपयों मे राशनकार्ड पर गेहूं -चावल
लेने वाले तो खुश
सरकार बाँट रही है
एक रुपया लेने से भिखारी का भी इन्कार
पर अन्न सस्ता चाहिए
नहीं तो सरकार गिर जाएगी
बिना मेहनत के खाना
मेहनतकश भूखा
सोच कहाँ गई
मंहगाई का ताल्लुक केवल अन्न से
भूल जाते हैं लोग
रोटी का मजा लेने वाले
किसान पसीना बहाता है
तब जाकर गेहूं उपजता है
सब्जियाँ होती है
और वह मोहताज रहता है
उसे कोई सातवां पे कमीशन नहीं लगता
वह तो प्रकृति की मेहरबानी पर जीता है
और हम उसकी मेहरबानी पर

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