Saturday, 2 February 2019

स्टेच्यू की व्यथा

अंधकार का साम्राज्य फैल गया है
सड़कों पर सन्नाटा फैल गया है
कुछ इक्का - दुक्का गाड़ियां जा रही है
वीरान रात और ठंड का कहर
स्ट्रीट लाईट जल रही है
कुछ बेघर और भिखारी मेरी शरण मे आ गए हैं
उन्होंने मेरे नीचे ही पनाह ले रखी है
मैं इतना विशालकाय जो हूँ
वैसे तो व्यक्ति इतना विशालकाय होता नहीं
हाँ  उसकी याद मे मूर्तियां बड़ी से बड़ी
उसमें तो होड़ लगी है
कुछ जीवित रहते ही
कुछ का मृत्यु के पश्चात
सदियों लोग देखे और याद रखें
यह सब व्यर्थ है
व्यक्ति का नाम उसके कर्म से बोलता है
मुझ पर इतना खर्च
शायद इतने में तो न जाने कितने बेघरबार को घर मिल जाता
यह बिचारे ठिठुर रहे हैं
मैं शान से खड़ा हूँ
मुझे ग्लानि हो रही है
मैंने अपना जीवन निस्वार्थ जीया
समाज के वंचित लोगों के दुख - दर्द बांटे
वही  आज स्टेच्यू बन खडा है
संवेदना भी शायद पत्थर हो चुकी है
सुबह होगी
यह सारे चले जाएंगे
रोजी रोटी की तलाश मे
पक्षी आकर बैठेंगे
बीट करेंगे
कुत्ते - बिल्ली आकर सु सु करेंगे
वह तो अबोध जीव हैं
इसलिए बुरा नहीं लगता
पर इंसान का क्या ??
मुझ पर राजनीति शुरू
कभी कालिख पोते
कभी जूतों की माला पहनाई
कभी तोड़ फोड़ की
इससे तो अच्छा था
मैं लोगों के दिलों पर राज करता
मुझे निर्जीव ,हृदयहीन बुत नहीं बनना

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