Thursday, 11 June 2020

श्मशान भी द्रवित

आज श्मशान भी लगता रो रहा है
यहाँ आते हैं मृत्यु के बाद
विधि विधान से अंतिम क्रिया
कम से कम आखिरी समय में सम्मान के साथ बिदाई
परिजन और परिचितो से घिरे
नम ऑखों के साथ भावभीनी बिदाई
ऐसा समय आ गया
कोई अपनों का साथ नहीं
बस चुनिंदा लोग
या सरकारी कर्मचारी द्वारा
जगह कम है

लोग ज्यादा है
लाशे भी वेटिंग में है
इससे बडी विडंबना क्या हो सकती है
मैं तो मृत्यु का दृश्य ही देखता हूँ
अंजान नहीं हूँ उससे मैं
पर ऐसा
वारिस होकर भी लावारिश
अपने ही पास आने से डरे
जिंदगी कैसे भी हो
बीत ही जाती है
जन्म के साथ मृत्यु भी
मृत्यु कैसी भी हो
सुखद तो नहीं होती
अंतिम बिदाई इस तरह
इससे दुखद क्या
आए थे अकेले
जाते हैं चार कंधों पर
मानव है
समाज में रहते हैं
अपनों और समाज से भी जाते जाते दूर
यह तो सोच से परे
पर इस समय की कटु वास्तविकता यही
मैं भी यह सब देख द्रवित

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