जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध
दिनकर जी की यह पंक्तियाँ सभी के लिए हैं
हम थे क्या और हो क्या गए हैं
मशीन और पत्थर बन रह गए हैं
मानवीय संवेदना मर सी गई है
अपने आप में सिमट कर रह गये हैं
कोऊ होऊ नृप हमें का हानि
चेरी छाडि न होइओ रानी
हमको क्या पडी है किसी से
पडोसी के घर आग लगी है हमारे यहाँ नहीं
उस आग की लपटें तो हम तक भी आएंगी
देश में राजनीति में समाज में
यहाँ तक कि अपने घर में भी
सब अपने में मस्त
कहने को परिवार
रहते हैं जैसे अजनबी
हमारा सब काम हो रहा है ना
और जाएं भाड़ में
हम सब देख कर मूक दर्शक बने हैं
आने वाली पीढ़ी इसका जिम्मेदार हमें भी मानेगी ही
हम डरपोक और कायर हो गए हैं
लालची और स्वार्थी बन गए हैं
अपनेपन और मैं में सिमट कर रह गए हैं
मशीनी युग में मशीन हो गये हैं
भावनाओं और विचारों से परे हाड- मांस का इंसान ।
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