खिड़की मे बैठी बरसात को निहार रही
कुछ बूंदे अंदर आने को बेताब
हाथ बाहर निकाल पकड़ने का प्रयत्न
पर कहाँ वह हाथ आती
फिसल -फिसल जाती
मानो चिढ़ाती कह रही
अब न वह समय रहा न उम्र
बचपन के सुहावने दिन
वह धमालमस्ती
भीगना -भिगोना
बारिश का पानी रोप कर पीना
मुंह ऊपर कर गटकना गिरती बूंदों को
वह काँलेज बंक करना
वह इधर -उधर घूमना
वह मटर गस्ती
भीगना -खिलखिलाना
छाता उड़ाना
समुद्र किनारे लहरों संग खेलना
वह अब याद है
यादों के झरोखों से झाँकते
बीते समय को याद करते
बैठे हैं तक रहे हैं
मौसम की छटा तो वही
पर हम तो वह नहीं
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Tuesday, 3 July 2018
याद आई वह सुहावनी बरसात
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