बगीचे मे बेंच पर बैठी
कुछ सोच रही थी
अचानक नजर सामने गई
पेड़ खडे थे
कुछ तने कुछ झुके कुछ फैले
कुछ टेढे मेढे
कुछ छोटे कुछ बड़े
कुछ पौधे तो कुछ लताएँ
कुछ पेड के नीचे पनपे
कुछ इनका सहारा लिए
लताएँ इन पर चढ़ लहलहा रही
हर एक का अपना वजूद
हर एक की अपनी पहचान
कुछ तने हुए
कुछ सहारा दिए हुए
कुछ शांत
कुछ झूमते हुए
कुछ फलों से लदे
कुछ ठूंठ
कुछ हरे भरे
कुछ लाल कुछ पीले
सबका अपना अपना रंग
सबकी अपनी अपनी खूबसूरती
कुछ सूखे
बदरंग कोई नहीं
पर हैं इसी बगीचे के
सबका यही घर
सबको उसने अपने मे समायोजित किया
कहीं कोई भेदभाव नहीं
पर काटने वाले कुल्हाड़ी चलाते हैं
तब वह भी विचलित होता है
वह नहीं चाहता
उसका कोई भी सदस्य
खुश न रहे
पूरी स्वतंत्रता है
अपनी इच्छा से बढे, खिले
विकास करें
फलों/फूलों से लदे
हवा के साथ झूमे
लहलहाए ,पनपे
क्योंकि सबका अपना अपना असतित्व
बगिया तो सभी की
वह कोई भेदभाव नहीं करती
ऐसा ही हमारा देश हैं
सबका और सबको प्यारा
हम इसके यह हमारा
इसीसे तो हमारा असतित्व
यह हमारी पहचान
मेरा देश महान ।
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