Saturday, 9 March 2019

खुशी की फितरत

खुशी आती है
दरवाजे से लौट जाती है
हम पलकें बिछाए इंतज़ार करते हैं
स्वागत की तैयारी करते हैं
तब तक वह गायब हो जाती है
बस कुछ झलक दिखला जाती है
हम तो रोकना चाहते हैं
वह है कि ठहरने का नाम नहीं लेती
पता नहीं कौन सा बदला ले रही है
आँख मिचौली का खेल बंद नहीं करती
हम इसको जी से चाहते हैं
यह हमसे ही जी चुराती
हम हमसफर बनाना चाहते हैं
यह बीच राह में ही छोड़ जाती
कितने जतन कर चुके
यह अपनी आदत से बाज नहीं आती
कैसे विश्वास करें इस पर
यह सदा किसी के पास नहीं रहती
पाला बदलती रहती है
आज यहाँ तो कल कहीं और
यह बड़ी घुमक्कड़ी है
कैसे इसे बांध कर रखें
अपना बना कर रखे
यही तो अब तक समझ न पाए
यह तो फितरत है इसकी
आती है तो हंसाती है
जाते समय जार जार रूलाती है
कुछ पल तो टिके
यही तो गुजारिश है इससे
हमें अपना बनाए
हमारे घर -बगिया को महकाए
हमारे साथ हँसे खिलखिलाएं

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