आज संतरा छिल रही थी
तब बचपन याद आ गया
जब बच्चे थे
तब संतरा खाकर उसका छिलका
एक दूसरे की ऑखों में डालते थे
कभी-कभी अपनी भी ऑखों में
ऑसू आने के लिए
पानी आने के लिए
मुस्कान आ गई
आज तो ऑखों में बात बात पर पानी आ जाता है
उसको छुपाना पडता है
बडे जो हो गए हैं
कोई जान न ले
बचपन में कोई फर्क नहीं पड़ता था
आज समझ आ रहा है
ऑसू ऑसू में भी अंतर होते हैं
कुछ ऑसुओ को अंदर ही सुखाना पडता है
कुछ को छिपाना पडता है
यह संसार की अजब रीत है
वह ऑसू देना भी चाहता है
मरहम लगाना भी
आपसे द्वेष भी
आपसे सहानुभूति भी
आगे बढने देना नहीं चाहता
पैर खीचने के लिए तत्पर
इसलिए तो ऑसू भी संभल कर बहाना पडता है
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Wednesday, 18 December 2019
ऑसू भी संभल कर
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