घर के पुराने बर्तनों से
कुछ खास रिश्ता है
यह टेढे मेढे सही
है दिल के करीब
इसमें हमारा बचपन समाया है
दीपावली के समय घिस घिस कर चमकाए जाते थे
हम वही खडे रहते थे
एक-एक बरतन को करीने से सूखने के लिए
बाद में उसको रेक पर सजा दिया जाता था
धनतेरस को एक और उसमें जुड़ जाता था
हम माॅ के साथ खरीदारी करने जाते थे
नए बरतन पर इस बार किसका नाम
उत्सुकता रहती थी
कभी-कभी ये बडे बक्से में बंद कर दिए जाते थे
घर की बिटिया को ब्याह में देने के लिए
आज नए-नए चमकीले बरतन आ गए हैं
झटपट वाले भी है
पर उनकी बात ही निराली थी
वे केवल बरतन ही नहीं होते थे
संपत्ति भी होते थे
वह पुराने होने पर बेकार नहीं
कीमती होते थे
कुछ देकर ही जाते थे
न तब कबाड़ थे न आज
सोने के बाद दूसरा स्थान
इन्हीं का होता था
ये तांबा ,पीतल और कांस्य के बरतनों का भंडार
बहुत महत्वपूर्ण थे
भोजन के अनिवार्य अंग थे
आज जमाना बदल गया है
अब यह कभी कभार दिखते हैं
इन्हें निकाल दिया गया है
या फिर कहीं अंदर रख दिया गया है
एकाध ड्राइंग रूम की शोभा
शायद भविष्य में ये शोभा ही बन कर रह जाएं
जमाने का प्रभाव तो इन पर भी पडा है
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Tuesday, 7 January 2020
उस समय के बरतन
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