Friday, 22 May 2020

एक ग्रामीण की व्यथा

कल तक गाँव जाते थे
सबमें एक खुशी की लहर उठती थी
सब मिलने आते थे
द्वार पर बैठ बतियाते थे
आज देखते देखते-देखते सब बदल गया
अब तो दूर से ही राम राम
ऑख चुराकर निकल जाते हैं
संदेह भरी दृष्टि से देखते हैं
जैसे हमने कोई अपराध किया
हम तो शहर छोड़ अपने गाँव आए थे
अपनापन पाने
वह अपनापन तो गायब
सब अंजाने से दिखते हैं
दूसरे क्या अपने भी
ठहरा दिया गया है स्कूल में
कोरोन्टाइन कर दिया
सोचा था घर से नाश्ता पानी आएगा
भोजन मिलेंगा
पर यह क्या ??
उनका कहना
यह जिम्मेदारी तो सरकार की
हमारे पास इतना नहीं है
जहाँ कमा कमा कर दिया
उनका पेट भरा
घर बनवाया
वही एक कमरा देने में आना कानी
क्या सोच शहर से आए थे
हो क्या रहा है यहाँ
सही है जब तक पैसा है
तब तक हर कोई सगा
पैसा बिना सब बेगाना
ऊपर से करोना

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