Sunday, 12 May 2024

माँ है दाल - भात जैसी

आदत है मेरी 
कहीं भी जाऊं 
कितने भी व्यंजन खा लू
दाल - भात बिना पेट नहीं भरता
घर हो या बाहर
नानवेज हो या मिष्ठान्न 
एकाध बार ही ठीक है
हर रोज नहीं 
दाल - भात रोज चाहिए 
वैसे ही माँ होती है
माँ की जगह किसी की नहीं 
पीड़ा में भी माँ ही याद आती है
माँ का रिश्ता पुराना नहीं पडता 
हम भी पहले जैसे और माँ भी वही 
एक दिन नहीं हर पल माँ का है
ऐसा तो कभी होता ही नहीं 
माँ जेहन में न रहें 
गर्भ से शुरू हुई यात्रा आजन्म चलती रहती है
हमारी आदत में शुमार होती है
माँ भूलने वाली व्यक्ति नहीं है
जिससे हमारा असतित्व है
संसार से परिचित करवाने वाली
उसकी शरण तो ईश्वर को भी लेनी पडी 
माँ बिना तो उनका भी संसार में आगमन नहीं होता
संसार को उंगली पर नचाने वाले को भी माँ के इशारे पर नाचना पडा 
सुदर्शन चक्र धारी को भी मार खाना पडा
जननी है वह जन्मदात्री है वह
उसके जैसा कोई कैसे हो सकता है
वह बस एक ही है
सबसे निराली सबसे प्यारी
तभी तो उसकी छडी की मार नहीं लगती
उसकी डांट फटकार दिल पर नहीं लगता 
दिल ही उसका अपने बच्चों के लिए हैं
 अपनी संतान को अपने से ऊपर रखती है 
तो वह है माँ 
उसकी खुशी के लिए सब न्योछावर करती है खुशी खुशी 

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