Thursday, 13 March 2025

बचपन की होली

कभी हम भी खेलते थे होली 
उस बात को जमाना हो गया 
याद अभी भी ताजा है 
वह बचपन था 
रंगों से सराबोर था 
रंग ही रंग थे जीवन में 
हर गम से अंजान 
जान बूझकर रंग लगवाते थे 
शीशे के सामने खड़े हो घंटों निहारते थे
अलग अलग तरह के मुंह बनाते थे 
अपने आप पर ही हंसते थे 
रंग बिरंगी चेहरा लेकर घूमते थे 
न भूख लगती थी न प्यास
बाद में रगड़ रगड़ कर रंग छुड़ाते थे 
शाम को सबके घर झुंड में जाते थे 
मालपुआ और गुझिया खाते थे 
ऐसी बात नहीं कि हमने बाद में होली खेली नहीं
बचपन वाली बात फिर कभी रही नहीं 

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