Tuesday, 19 January 2016

अगर जीवन एक फिल्म होती

अगर जीवन एक फिल्म होती
जब चाहे सी डी लगाकर देख लेती
ब्लेक और व्हाइट दृश्यों में रंग भर देती
जो दृश्य नहीं चाहिए कॉट छॉट देती
जैसा चाहती वैसी पटकथा लिखती
सब कुछ सुंदर और परिपूर्ण ,दुख तो होता ही नहीं
मनचाहा नायक होता ,मनचाहे सपने होते
एक बडा सा बंगला होता ,फूलों की क्यारियॉ होती
जहॉ मनचाहे सपने बुनती और आशाओं के झूले में झूलती ,मनभावन सपने को साकार करती
दुखी और पीडादायक लम्हों को भी आनंद दायक बना देती पर अफसोस जीवन फिल्म नहीं है
न उनकों खींचकर मनचाहा रूप देनेवाला कैमरा भी नहीं है
जीवन तो भूत ,वर्तमान और भविष्य का वह भँवर जाल है कि उससे निकलना भी मुश्किल
अतीत पीछा नहीं छोडता ,वर्तमान जीने नहीं देता और भविष्य सोच -सोचकर परेशान कर देता है
अंत में उस पर मृत्यु रुपी परदा पड जाता है
सब यही का यही धरा रह जाता है
रोते हुए आए थे पर जाएगे कैसे यह तो परिस्थितियॉ तय करती है हम नहीं
हम तो ऊपर वाले के हाथ की कठपुतली है जो उसका दिया हुआ रोल निभाते हैं

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