किससे और कैसे करू
क्या कहूँ क्या न कहूँ
दर्द की अदा ही निराली
उसे लफ्जों में कैसे बांधू
यह तो छलिया है
आज किसी रूप में तो कल किसी रूप में
हर कोई इसे नहीं समझ सकता
मन में दर्द समाया
तब भी मुख पर मुस्कान
ऑखों में झिलमिलाती बूंदे
छिपते - छिपाते
कभी बह ही पडती है
बांध तोड़ डालती है
इन ऑसूओ को कौन समझेगा
यह ऐसे ही नहीं निकलती
जब टीस होती है
तब मन जार जार रोता है
कुछ दर्द भूल जाते हैं
वक्त के साथ साथ
कुछ ताउम्र नासूर बन कर रहते है
जरा सा छेड़ा क्या
भूत , वर्तमान , भविष्य
सब दिखाई देता है
दर्द को कैसे और किससे बयां करें।
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