Sunday, 29 November 2020

मर्द और ऑसू

मैं रोना चाहता था जी भर कर
पर मुझे रोने नहीं दिया गया
सबके समान मैं भी तो बाहर आया था
माँ के गर्भ से रोते हुए
बस उसके बाद तो रोने ही नहीं दिया गया

छोटा बच्चा था
जब गिरता पडता था
तब कहा जाता था
बहादुर बेटा है
क्या लडकियों की तरह ऑसू बहा रहा है

जब थोड़ा बडा हुआ
कभी माँ - बाप की डाट
कभी टीचर की डांट
तब भी दोस्तों से यह सुनना
अरे । लडकी है क्या
जो ऑसू बहा रहा है

नौकरी की
बातें सुनी
तब भी नहीं
ऑसू को पी जाना था
दूसरों को नहीं दिखाना था

ब्याह हुआ
बिदाई वक्त पत्नी फूट फूट कर रो रही थी
उस वक्त भी मैं संजीदा हुआ
तुरंत संभल उसको संभाला
सबको संभालने और ऑसू पोछने की जिम्मेदारी मेरी
वह माँ हो या पत्नी

बेटी की बिदा की बेला
तब भी न रो सका
तैयारियों में व्यस्त
चिंतित और परेशान
सब ठीक-ठाक निपट जाए
चैन की सांस लूं

रोना भी सबके नसीब में नहीं
हमारे नसीब में तो
हर गम पी जाना
क्योंकि हम मर्द है
धारणा है समाज की
मर्द को दर्द नहीं होता
दर्द  तो हमें भी होता है
ऑसू तो हमारे भी निकलते हैं
पर हम उसे दिखाते नहीं
नहीं तो सुनना पडेगा
मर्द का बच्चा होकर भी
औरत की तरह ऑसू बहा रहा है.

मैं लाचार किसान नहीं

किसान हूँ
किसी का दिया नहीं खाता हूँ
परिश्रम करता हूँ
खेतों में हल और ट्रेक्टर चलाता हूँ
धूप में पसीना बहाता हूँ
ठंडी और गर्मी के थपेडे  सहता हूँ
बारिश के अंधड - तूफान का सामना करता हूँ
प्रकृति के प्रकोप सहता हूँ
बंजर मिट्टी को उपजाऊ बनाता हूँ

मैं अन्नदाता हूँ
अन्न उगाता हूँ
पूरे संसार का पेट भरता हूँ
मैं किसी की दया नहीं
अपना हक चाहता हूँ
मुझे उचित मूल्य मिले मेरी फसल का
उचित मुआवजा मिले

मैं कोई सरकार का नौकर नहीं
वेतन और बोनस नहीं लेता हूँ
मेहनत मैं करता हूँ
लाभ दूसरे उठाते हैं
मुझसे टमाटर दो रूपये किलो
बाजार में चालीस रूपये
सब दूसरे की जेब में

मैं व्यापारी नहीं हूँ
पर किसान जरूर हूँ
मेरी जरूरत सभी को है
मैं मिट्टी में सोना उगाता हूँ
सोनार नहीं हूँ
तभी तो उस सोने को औने पौने दामों में बेच देता हूँ

अब तक तो मैं अंजान था
अब मुझे अपनी कीमत समझ आ रही है
अब मुझे फंसना नहीं है
ज्यादा नहीं पर
हक और उचित मूल्य जरूर चाहिए
अब मैं चुप नहीं बैठूगा
मुझे लाचार और कमजोर न लेखा जाए
मेरी काबिलियत का मूल्यांकन होना चाहिए

मैं पाषाण नहीं पुरुष हूँ

मैं पुरूष हूँ
यह बात तो सौ प्रतिशत सत्य
पर मैं और कुछ भी हूँ
एक पुत्र हूँ
एक भाई हूँ
एक पति हूँ
एक पिता हूँ
और न जाने क्या - क्या हूँ
मेरे पास भी दिल है
मैं कठोर पाषाण नहीं
जो टूट नहीं सकता
मैं बार बार टूटता हूँ
बिखरता हूँ
संभलता हूँ
गिरकर फिर उठ खडा होता हूँ
सारी दुनिया की जलालत सहता हूँ
बाॅस की बातें सुनता हूँ
ट्रेन के धक्के खाता हूँ
सुबह से रात तक पीसता रहता हूँ
तब जाकर रोटी का इंतजाम कर पाता हूँ
घर को घर बना पाता हूँ
किसी की ऑखों में ऑसू न आए
इसलिए अपने ऑसू छिपा लेता हूँ
सबके चेहरे पर मुस्कान आए
इसलिए अपनी पीड़ा छुपा लेता हूँ
पल पल टूटता हूँ
पर एहसास नहीं होने देता
मैं ही श्रवण कुमार हूँ
जो अंधे माता पिता को तीर्थयात्रा कराने निकला था
मैं ही राजा दशरथ हूँ
जो पुत्र का विरह नहीं सह सकता
जान दे देता हूँ
माँ ही नहीं पिता भी पुत्र को उतना ही प्यार करता है
मैं राम भी हूँ
जो पत्नी के लिए वन वन भटक रहे थे
पूछ रहे थे पेड और लताओ से
तुम देखी सीता मृगनयनी
मैं रावण भी हूँ
जो बहन शूपर्णखा के अपमान का बदला लेने के लिए साक्षात नारायण से बैर कर बैठा
मैं कंडव  त्रृषि हूँ जो शकुंतला के लिए गहस्थ बन गया
उसको बिदा करते समय फूट फूट कर रोया था
मेनका छोड़ गई
मैं माॅ और पिता बन गया
मैं सखा हूँ
जिसने अपनी सखी की भरे दरबार में चीर देकर लाज बचाई
मैं एक जीता जागता इंसान हूँ
जिसका दिल भी प्रेम के हिलोरे मारता है
द्रवित होता है
पिघलता है
मैं पाषाण नहीं पुरुष हूँ

Saturday, 28 November 2020

रिटायरमेंट की बेला

चेहरे पर मुस्कान
मन में उदासी
है बिदाई की बेला
जीवन का अनमोल समय
जहाँ किया समर्पण
आज वहाँ से  नाता खत्म करना है
36 साल का नाता खत्म
इतना आसान नहीं
सब यादों में रचे - बसे रहेंगे
वह रूतबा वह ओहदा
अब फिर न मिलेंगा दोबारा
वह दोस्तों का साथ
वह हंसना - खिलखिलाना
वह क्रोध और खीझ
वह अपनापन वह रौब
वह आर्डर और आदेश
सब कुछ अब यही रह जाएंगा
अपने एक मन को यही छोड़ जाऊंगा
आप लोग तो अपनों से बढकर
उसकी जगह कौन ले पाएंगा
यह सम्मान यह प्यार
उधार रहा
यह कर्ज तो मैं ताउम्र न चुका पाऊँगा
अलविदा दोस्तों
तुम्हारी याद तो साथ लिए जाता हूँ
इतनी गुजारिश है
तुम लोग भी मुझे कभी-कभी याद कर लेना
मेरे पास तो यादों का पिटारा रहेंगा
जब जब याद आएगी
खोल कर झांक लूँगा
उस समय को याद कर
हौले से मन ही मन मुस्करा दूंगा

चमचा हर युग की जरूरत

चमचा हर युग की जरूरत
चमचा बिना तो सब अधूरा
पतीले में व्यंजन लाजवाब पडे हैं
बिना चमचो तक उन तक पहुंच नहीं
चमचा से हिलाना पडेगा
चमचा से निकालना पडेगा
चमचा से खाना पडेगा
तब जाकर उसका स्वाद समझ में आएगा

कटोरी तो खैर छोटी सी
उसमें तो हाथ डालकर खा सकते हैं
ग्लास से लेकर भगोना
हर गहरे चीज में पहुंचना है
तो आवश्यक है चमचा

बडे बडे काम
बडे बडे अफसर
इन तक पहुंचना इतना आसान नहीं
चमचा तो जरूरी है
बिचौलिया बिना तो डायरेक्ट पहुँच नहीं
यह तो इंसान है
ईश्वर तक पहुंचने के लिए भी
पंडे - पुजारी की शरण

इनके रूप अलग अलग हो सकते हैं
नाम अलग-अलग हो सकते हैं
आकार अलग - अलग हो सकते हैं
हाँ इनकी जरूरत सभी को
साधारण आदमी से लेकर सत्ताधीशो तक
बहुरूपिये से लेकर राज दरबारियों तक
इनकी चमक फीकी नहीं पड रही
समय के साथ मांग भी बढ रही
तोड जोड़ करना हो
बिठाना - गिराना हो
ये माहिर खिलाडी है
इनसे दुश्मनी लेना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना
अगर सब कुछ सुचारु रूप से हो
हमारा कार्य सिद्ध हो
तब तो चमचा को बार-बार चमकाना पडेगा
कुछ हिस्सा देना पडेगा
नहीं तो आप ताकते रह जाएंगे
चमचा मुंह चिढाता रह जाएंगा

सुखी परिवार

मैं झूठ बोलती हूँ
बहुत कुछ छिपाती हूँ
इस तरह तुम लोगों को बचाती हूँ

बच्चों की गलती पर परदा डालना
पढाई में कम अंक आए तो छिपाना
फिल्म देखने और घूमने की इजाजत देना
चोरी छिपे पैसे देना
देर रात घर आए तो चुपके से दरवाजा खोल देना
यह तो हुई बच्चों की बात

अब तुम्हारी बात कर लें
तुम बात बात पर पर किच किच करों
बच्चों को कोसो
उनको घर से निकल जाने को कहो
कभी-कभी शराब पीकर आओ
मुझे कभी-कभी मार पीट दो
यह भी छिपाती  हूँ
पडोसियों से
रिश्तेदारो से
यहाँ तक कि घर वालों से भी

ताकि तुम्हारी साख बनी रहे
इज्जत बनी रहे
घर सुचारू रूप से चलता रहे
तुम्हारे और बच्चों में प्रेम बना रहें
इस खातिर झूठा बनना पडता है
अन्याय सहन करना पडता है
चुप रहना पडता है
मन को मारना पडता है
मन रोता है चेहरे पर मुस्कान रहती है
दिखावा करना पडता है
ताकि एक दूसरे में स्नेह और सम्मान बना रहे
यह सब करना पड़ता है
तब जाकर एक सुखी परिवार बनता है

Friday, 27 November 2020

तभी तो इसका नाम जवानी है

कभी जमाना तुम्हारा था
आज जमाना हमारा है
तुम भी तो सदा से ऐसे नहीं थे
कभी तुम भी जवान होंगे
तुमने भी बहुत कुछ मौज मस्ती की होगी
दोस्तों के संग मटरगश्ती की होगी
पिता से छुपकर सिनेमा देखा होगा
कभी-कभी देर रात तक गायब रहे होंगे
तुमने भी नैन लडाए होंगे
प्यार की फुलझड़िया मन में फूटी होगी
घर में रहना बोझिल लगता होगा
किताबों में दिमाग खफाना रास नहीं आता होगा
बात बात पर गुस्सा आता होगा
माता-पिता की बात पसंद नहीं आती होगी
समझदारी की तो अपेक्षा ही नहीं
यह उम्र ही ऐसी होती है
सपने और ख्वाब देखे जाते हैं
जोश रहता है
विद्रोही स्वभाव रहता है
बिना कारण खिलखिलाना
हर बात को मजाक में उडाना
कपडे और जुल्फो को तवज्जों
अच्छा दिखने की चाह
सजना और संवारना
बेफिक्री का आलम
कभी तुम हमारी जगह
आज  हम तुम्हारी जगह
यह तो हर काल की यही कहानी है
तभी तो इसका नाम जवानी है .

लव जिहाद का स्वागत है

मैं तो प्रेम दीवानी
मेरा दर्द न जाने कोय
प्रेम का एक ही रंग होता है
वह जब चढता है
तब धर्म , जात ,ओहदा , संपत्ति
यह सब नहीं देखता
वह तो अपनी ऑखों से भी नहीं देखता
न अपने मन से
न विचार न सोच
क्योंकि रह सोच समझकर नहीं होता
वह तो बस अपने प्रियतम की ऑखों से देखता है
सोचता है , करता है
तभी तो कहा जाता है
प्रेम अंधा होता है
बडे बडे तख्त और ताज लोगों ने छोड़ दिया है
अपने और अपने परिजनों को
केवल एक व्यक्ति के कारण
बडी बडी लडाई और झगड़े हुए हैं
कत्ल और मर्डर
यह इज्जत और प्रतिष्ठा का प्रश्न भी

आज लव जिहाद पर चर्चा शुरू
कानून लाने जा रही है सरकार
क्या कानून लाने से इस समस्या का समाधान हो सकता है
अब कोई प्रेम नहीं करेंगा क्या ??

बहुत से लोगों ने ऐसे विवाह किया है
प्रतिष्ठित और सेलिब्रिटी ने भी
साधारण लोग भी
आज वे लोग खुश है
कुछ लोगों के साथ अच्छा भी नहीं हुआ है
वे पीडित हैं
पर यह तो किसी के भी साथ हो सकता है
अपने धर्म और जाति में भी

रही बात धोखा देनेवाली
नाम बदलकर विवाह करना
विवाह के लिए धर्म परिवर्तन
जबरन दवाब डालना
यह तो गलत है
प्रेम तो स्वतंत्र होता है
उस पर बंदिश नहीं लगाई जा सकती
तब तो वह प्रेम हुआ ही नहीं

प्रेम में तो समर्पण होता है
त्याग होता है
बदला लेने की भावना नहीं
जबरदस्ती नहीं
धोखा नहीं
अगर यह हो रहा है तब तो
लव जिहाद का स्वागत है

नहीं तो मैं शून्य

तुम बोलों मैं चुप रहूँ
तुम जो कहों वह मैं करूँ
तुम्हारी हर बात को सही मानू
तुम कुछ गलत करों तब भी प्रशंसा करूँ
तुमको जो पसंद हो वह मुझे भी पसंद हो
तुम जो चाहो वैसा मैं पहनूँ
तुम जैसा चाहो वैसा मैं बोलूं
तुम्हारे बिना कोई निर्णय न ले सकूँ
बिना आज्ञा के कहीं आ - जा न सकूं
हर बात में तुम्हारी सहमति
तुम्हारे घर को संवार कर रखू
तुम्हारे सारे काम मेरे जिम्मे
भोजन से लेकर कपडा इस्तरी करने तक
कभी बीमार न पडूं
आराम करने का तो अधिकार नहीं
अपनी मर्जी से पैसा खर्च न कर सकूँ
एक एक पाई का हिसाब दूं
घर के हर जरूरत का ध्यान रखूं
यह सब करती तो रहूँ
साथ में मुस्कराती भी रहूँ
कभी चेहरे पर शिकन न आने दूं
कोई शिकवा - शिकायत न करूँ
बस यंत्रचलित अपना काम करती रहूँ
तभी मैं अच्छी बनी रहूँगी
अपना अस्तित्व अपना व्यक्तित्व सब अस्त
बस तुम्हारी परछाई
जब तुम चलो
साथ साथ मैं चलूँ
नहीं तो मैं शून्य

जन्मभूमि से तो हमें भी प्रेम

मैं किसी दूसरी कौम का
इसलिए देखने का नजरिया भी अलग
हम भी इंसान है
हमारे अंदर भी मानवता है
हम भी देशभक्त है
देशभक्ति हमारी नसों में दौड़ता है
हमारे बाप दादा ने इसी मिट्टी में अपना खून - पसीना बहाया है
हम भी खुदा की इबादत करते हैं जो प्रेम और भाईचारा सिखाता है
हमें भी खून खराबा पसंद नहीं
देश का दुश्मन हमारा भी दुश्मन

हमारे देश की सफलता और विजय हमारी भी विजय
देश के विकास और उन्नति में हम भी भागीदार
जब भी कुछ दुर्देवी घटना होती है तब हम सबसे पहले शक के दायरे में
लोगों की शंकित निगाहें हम पर
लगता हमने ही कुछ गुनाह किया है
हम गुनाहगार है
हम देशद्रोहियों के साथ हैं
ऐसा कदापि नहीं
हम आंतकवादियों के साथ क्यों रहें
हमारा नाम क्यों बदनाम हो
हमको इसी माटी से प्रेम है
इसी में दफन हो रूखसत करेंगे

देशभक्ति किसी एक कौम की नहीं
देश के हर नागरिक की है
होनी भी चाहिए
इस भूमि के कर्जदार है हम
हमें आसरा दिया
फलने फूलने दिया
अपना हक और अधिकार दिया
स्वतंत्रता दी
कोई भेदभाव नहीं किया
तब हम नमकहराम कैसे हो सकते हैं

ऊपर वाले के दरबार में क्या मुंह दिखाएंगे
इसी मिट्टी में मरना है
जीना यहाँ मरना यहाँ
इसके बिना जाना कहाँ
हम आपके ही अपने है
कोई बेगाने नहीं
इबादत अलग-अलग भले हो
पर जन्मभूमि तो हमें भी उतनी ही प्रिय जितनी किसी और को

Thursday, 26 November 2020

केक और मेरी औकात

उनके घर में बच्चे का जन्मदिन था
खूब तैयारी की थी
सजावट भी गुब्बारे से
न जाने कितनी फूल - पत्तियों से घर सजाया था
बडा सा केक आया था
कमला सब काम कर चली गई थी
संझा समय जन्मदिन मना धूमधाम से
केक कटे
पिज्जा , बर्गर की पार्टी
बच्चा खुश
उसके दोस्त खुश
बच्चों ने कुछ खाया कुछ छोड़ा
यह फेंकना क्यों ??
प्लेट से निकालकर इकठ्ठा किया
उसको क्या पता चलेगा
अच्छी तरह से प्लास्टिक के डब्बे में रख दिया
कल कमला बाई आएगी तो दे दूंगी
खुश हो जाएंगी
घर ले जाएंगी
कहाँ से उसके बच्चों को इतना मंहगा केक मिलेंगा

आज इतनी देर लगा दी बाई
कहाँ रह गई थी
केक लेने गई थी मेमसाब
कल बाबा का जन्मदिन था
आज मेरे छोटे का भी है
अब हम लोग गरीब
बडा तो केक ले नहीं सकते
यह छोटा लाई हूँ
उसी बेकरी से जहाँ से आप लाती है
एक अपने लिए
एक आपके लिए
एकदम फ्रेश है
आप लोग जरूर खाना
मेरे छोटे को आशीर्वाद देना
वह भी पढ लिखकर आप लोग जैसा बडा आदमी बनें

हाथ से केक का डिब्बा लेते हुए मैं सकुचा गई
इस गरीब का दिल
एक मेरा दिल
टेबल पर रखा हुआ
वह जूठे इकठ्ठे किए  हुए केक का डिब्बा मुझे चिढा रहा था
मेरी औकात बता रहा था

जमा करना हमारी फितरत

हम लेते रहते हैं
लेते रहना  हमारा स्वभाव
मुफ्त में मिले तो क्या बात है
लाइन में खडे हो जाएंगे
भंडारा हो तो भर भर कर खाना
शादी हो तो ठूंस ठूंस कर खाना
किसी ने उपहार दिया तो खुशी से फूला नहीं समाते
सब्जी वाले से मुफ्त में धनिया - मिर्ची झोला में डलवाना
दस रूपये का सामान हो तब भी बारगेनिग करना ही है
कम करवाया यानि क्या अनमोल हासिल कर लिया
लेना तो हमारी फितरत में शुमार
देना हो तब संकुचित हो जाना

प्रकृति तो बिना स्वार्थ के देती है
सूर्य अपनी रोशनी
नदी अपना पानी
पेड अपना फल - फूल
चांद अपनी चांदनी
हवा , पानी , भोजन
सभी को देते हैं
हर जीव को पृथ्वी के

कोताही तो हम बरतते है
क्या देना
किसको देना
कब देना
नाम होगा कि नहीं
एहसान मानेगा या नहीं
यहाँ तक कि चेहरे पर मुस्कान भी
बोलना चालना भी
हर चीज में स्वार्थ
तोलना और मोलना
जैसे हम मानव न होकर एक व्यापारी हो
प्रकृति के अंग तो हम भी
फिर हम उसका अनुकरण क्यों नहीं करते
उससे क्यों कुछ नहीं सीखते
वह जमा नहीं करती , बांटती है
हमें जरूरत हो या न हो जमा जरूरी है
अपने लिए
अपने आने वाली पीढ़ी के लिए भी

संविधान भी कुछ कहता है

आज संविधान दिवस
हर चीज की आजादी
हर अधिकार प्राप्त
मैं देश का एक नागरिक
मैं स्वतंत्र हूँ
संविधान ने मुझे यह हक दिया है
मैं देश के किसी भी कोने में विचरण करूँ
अभिव्यक्ति की आजादी भी दी है
अधिकार तो मुझे ज्ञात है
कर्तव्य का भी तो पता हो

जब देश हमारा
तो यहाँ की हर चीज हमारी
सडक , बिजली , पानी
तब उसका इस्तेमाल भी कैसे करना है
यह भी जानना बहुत जरूरी है
कचरा कहाँ फेंकना है
पर्यावरण को कैसे बचाना है
वोट किसे देना है
योग्य नेता का चुनाव कैसे करना है
सरकारी कर्मचारियों से काम कैसे करवाना है
रिश्वत देकर या बिना दिए
टैक्स भरना है या चोरी करना है
पुलिस और प्रशासन से सहयोग करना है

न जाने क्या क्या करना है
अधिकार प्राप्त करने के लिए
कर्तव्यो का निर्वाह करना
कानून का पालन करना
स्वेच्छा से
जबरन
यह तो हम पर
यह हमारा संविधान हमसे कहता है

Wednesday, 25 November 2020

मैं एक अनसुलझी पहेली हूँ

मैं कौन हूँ??
मैं सीता हूँ त्याग की प्रतिमूर्ति
मैं काली हूँ राक्षसों का संहार करने वाली
मैं गांधारी हूँ जिसने ऑखों पर पट्टी बांध ली क्योंकि अन्याय का प्रतिकार करने का यही रास्ता दिखा
मैं द्रोपदी हूँ जिसको भरी सभा में निर्रवस्र् करने की कोशिश हुई
मैं भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा हूँ जिसे अर्धरात्रि में सोता छोड़ चले गए
मैं सावित्री हूँ जो यमराज से पति का जीवन मांग लिया
मैं मनु हूँ जो दत्तक पुत्र को पीठ पीछे बांध अंग्रेजों से लड रही थी
मैं भोलेनाथ की अर्धांगनी सती हूँ जो पति का अपमान होते देख भस्म हो गई
मैं राजपूताने की जौहर वाली हूँ जो अग्निकुंड में कूद जान दे दे
मैं इंदिरा हूँ जिसने दुनिया का नक्शा बदल दिया
ऐसे न जाने कितनी
पद्मावती से लेकर अहिल्याबाई होलकर तक
कस्तूरबा से लेकर मीरा कुमार तक
जिद पर आ जाऊं तो कैकयी बन जाऊं
बेटे को तो राजा बनाकर रहूंगी किसी भी कीमत पर
मैं यह सब तो हूँ
इन सब में मैं हूँ
तब कमजोर तो कदापि नहीं
मुझमें प्रतिकार की शक्ति
इतिहास बदलने की शक्ति
घर हो या बाहर
मेरा ही वर्चस्व
वह भले ही मैं जताऊ नहीं
मैं नारी हूँ
जननी हूं
सृष्टि की निर्मात्री हूँ
घरनी हूँ
घर ही मुझसे
हर रूप मेरा
एक अलग कहानी कहता
मुझे समझना इतना आसान नहीं
मैं एक अनसुलझी पहेली हूँ

यह एहसास तो हो

किसान अनाज उगाता है
सबसे खराब वह खाता है
गृहणी रोटी बनाती है
बची बासी रोटी वह खाती है
पुलिस सबका त्योहार मनवाती है
उसका अपना घर सूना रहता है
सैनिक रक्षा करता है
उसके घर का रक्षक कौन ??
शिक्षक होनहारो को राह दिखाता है
उसके शिष्य बडे बडे ओहदे पर
वह ताउम्र शिक्षक ही बना रहता है
माँ हमेशा माँ ही रहती है
त्याग की मूर्ति बनने की अपेक्षा
बडे ही हमेशा क्षमा करें
छोटे उत्पात करते रहे
ऐसे न जाने समाज के कितने लोग
जिन पर सब टिका है
यह जब डगमगाए
तब सारा ढांचा ही डगमगा जाएंगी
धरती माता न जाने क्या क्या सहती है
जिस दिन जरा सा हिल जाती है
भूचाल आ जाता है
सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है
जो आधार है
उस पर सब निर्भर
यह एहसास तो दिलों में रहना जरूरी है

Tuesday, 24 November 2020

मौसम भी परिवर्तनशील

आ गई ठंडी
बदल गया मौसम
अब सुबह देर से
सांझ जल्दी गहरा जाती है
अंधेरा अपना साया फैलाना शुरू कर देता
कुहरा भी पसरता जाता
धुंद के अंधेरे में
कोहासे के बीच कहीं रोशनी चमकती है
वह दूर तक नजर आती है
जीवन है
इसका प्रमाण दे जाती है

सूर्यदेव जरा देर से दर्शन देते हैं
लोग बाग बाहर आ बैठ जाते हैं
कोई धूप सेंकने के लिए
कोई स्वेटर बुनने के लिए
कोई गप्पा गोष्ठी करने के लिए
यह धूप भी मनभावन है
यह अब चुभती नहीं
सुकून देती है

सब कुछ सूख रहे इसी समय
अचार , पापड और मुरब्बा
संझा आग में सींकेगी
गरम गरम मूंगफली
छीला जाएंगा
रजाई में घुस पुदीने की चटनी का आस्वाद
ऊपर से कुल्फी वाले की आवाज
ठंड और गर्म
सही है दोनों ही मजेदार
दिन में धूप
रात में ठिठुरन
यह अनोखा मजा है
मौसम भी खुशगवार रहता है
वह भी परिवर्तनशील
तभी तो जीने का आनंद आता है

मैं बेचारी हूँ ???

मैं नारी हूँ
इसीलिए तो बेचारी हूँ
मैं माॅ हूँ
इसीलिए तो शक्तिशाली हूँ
मैं पत्नी हूँ
तभी तो सहनशील हूँ
मैं ममता की मूर्ति
मैं सती - सावित्री
मैं वीरागंना
मैं गृहिणी
मैं तो गृहस्थी की धुरी हूँ

संसार का बोझ लेकर चलती हूँ
फिर भी ऊफ नहीं करती हूँ
मुझे मालूम है
मैं क्या हूँ
मुझे अपनी शक्ति का अंदाजा है
मेरे बिना तो एक घर - परिवार भी व्यवस्थित नहीं चल सकता
संसार की बात ही अलग

मैं सब बर्दाश्त कर लेती हूँ
परिवार के हर व्यक्ति के नखरे उठा लेती हूँ
उनका सारा गुस्सा - खीझ अपने में समा लेती हूँ
जब नौ महीने गर्भ में बोझ उठा सकती हूँ
तब यह सब तो कुछ भी नहीं

मैं बेचारी तो हूँ
पर मेरे बिना घर नहीं चलता
सबकी अपेक्षा मुझसे ही
मैं वह नीलकंठ हूँ
जो विष का घूंट धारण कर गले तक ही रखती हूँ
अपने परिवार पर उसके छींटे भी नहीं पडने देती

मैं बेटी हूँ
मैं बहन हूँ
मैं पत्नी हूँ
मैं बहू हूँ
मैं माॅ हूँ
तभी बेचारी हूँ
व्यक्ति तो बाद में
सबसे पहले इतनी सारी भूमिका निभाना है
तब तो बेचारी ही बनना है
नहीं तो दूसरे बेचारे बन जाएगे
वह मुझे स्वीकार नहीं

Monday, 23 November 2020

जिसकी सत्ता उसका बोलबाला

मैं पत्रकार
पत्रकारिता मेरा धर्म
आजादी मेरी पहली मांग
अभिव्यक्ति की आजादी
जो हो रहा है
वह बताने की आजादी
समाज के दर्पण में झांकने की आजादी
सत्ता के गलियारों का खेल जानने की आजादी
देश - दुनिया की खबरों को पेश करने की आजादी
हर जगह झांकने की आजादी
स्वतंत्र विचार रखने की आजादी
विचरण करने की आजादी
मुझ पर बंदिश न लगे
मेरे पेशे की पहली मांग
निष्पक्षता और निष्ठा
बंधन से मुक्त
पत्रकार हूँ
व्यापारी नहीं
मुझे खरीदा नहीं जा सकता

हाँ समय बदल रहा है
नजरिया बदल रहा है
यहाँ नाप तौल कर काम हो रहा है
खबर दिखाने  में भी डर
ऊपरवालो का प्रेशर
नौकरी भी करनी है
पेट का सवाल है
मैं क्या चाहता हूँ
यह मायने नहीं
खबर सच हो या न हो
चटखारे वाली
मिर्च मसाले वाली हो
भले उसमें दम न हो
सच से कोसों दूर हो
दरबारी संस्कृति और चाटूकारिता
जिसकी सत्ता उसका बोलबाला

डर और जीवन

डर लगता है
डर के साये में जीना
घुट घुट कर जीना
यह भी कोई जीना है
जीने के लिए डरना
यह बहुत जरूरी है
नहीं डरे तब जीना मुश्किल
तब क्या करें
डरे या न डरे
डर का खौफ छोड़ दें
खौफ तो खौफ
डर तो डर
तब
डरना भी है
जीना भी है
डर है तो जीवन
जीवन है तो डर

बस हमारा साथ न बदला

बहुत कुछ बदला है
समय बदल गया
उम्र बदल गई
चेहरा बदल गया
शरीर पर झुर्रियों ने घेरा डाल दिया
शरीर कमजोर
हाथ पैर का लडखडाना
लडना नहीं बदला
वह बदस्तूर जारी है
अब शायद पहले से ज्यादा
क्योंकि पता है
अब न तुम बदल सकते
न मैं बदल सकती
जो है सो है
लडाई भी बरसों से
लगता एक तपस्या है
अब न तुम मुझे छोड़ेगे
न मैं तुमको छोड़ने वाली
वह अटूट बंधन
अब और अटूट
लडते झगड़ते तो जिंदगी कट गई
मैं तुमको बदलती रही
तुम मुझको बदलते रहे
बदलाव होता रहा
हम हम न रहें
तुम तुम न रहें
एक दूसरे के अनुसार हो रहें
अब क्या गिला शिकवा
सब बदला बदला
बस हमारा साथ न बदला

झुमका करें झनझन

आज मन गुनगुना रहा है
यह झुमका जो है
झुनझुना रहा है
तुम नहीं
तुम्हारे प्यार की सौगात  सही
जब जब झंकृत होते इसके घुंघरू
लगता कहीं तुम आसपास हो
हौले हौले से कुछ कानों में कह रहा है
गालों को सहला रहा है
जब जब डोलता
तब तब तुम्हारी याद भी हिलोरे लेती
झूम झूम कर कहता
इतराता और इठलाता
जब धीरे से छूती इसको
तब मन रोमांचित हो जाता
तुम्हारा स्पर्श जो इसमें समाया
यह दो है
एक के बिना दूसरा अधूरा
लगता एक मैं और एक तुम
जब साथ में मिलते हैं
तभी सुमधुर घंटी बजती है
जैसे इसके घुंघरू की घनघनन
मेरा मन हो रहा झनझनन