Thursday, 31 January 2019

मनोहर परिकर

शरीर का अपना धर्म
हमारा अपना कर्म
शरीर पर बीमारी पर वश तो नहीं
वह तो दबे पैर आती है
अपनी जकडन मे जकड़ लेती है
व्यक्ति कुछ नहीं कर पाता
वह असहाय हो जाता है
पर मनोहर परिकर की तारीफ करनी होगी
ऐसे समय मे भी उस कर्मयोगी की जीवटता को सलाम करना होगा
ऐसे हालात में भी गोवा का बजट पेश करना
काबिलेतारीफ है
ईश्वर जल्दी ही उन्हें स्वस्थ करें
सभी देशवासियों की शुभकामना उनके साथ
पार्टी कोई भी हो
यह फर्क नहीं पडता
परिकर जैसे नेता की देश को जरूरत है

प्रियंका गांधी का स्वागत है

प्रियंका के आने पर सबके अलग -अलग बोल
क्यों इतना बखेडा
प्रियंका आज से राजनीति में नहीं है
वह पहले से ही है
रही बात सुंदरता और आकर्षक से
तो राजनीति मे बहुत लोग हैं
फिल्मों की नायिकाएं भी है
जिन्होंने अपना परचम फहराया है
सफल भी है
रही बात इंदिरा गांधी के छवि की
वह कुछ हद तक स्वाभाविक है
पर वह सफलता का फार्मूला नहीं
व्यक्ति का काम बोलता है
अगर उनमें काबिलियत होगी
तो लोग पसंद करेंगे
यह जनता का फैसला होगा
उनका पसंद या नापसंद होगा
राजनीति का अखाड़ा है
बाजी कौन मारेगा
यह चुनाव तय करेगा
अभी से इतना हो हल्ला
राजीव की बेटी
इंदिरा की पोती
खुल कर मैदान में उतरे तो
अटकलें लगाकर क्या होगा
मोदी ,मायावती  ,ममता,अखिलेश जैसे
दिग्गजों का सामना करना है
अपनी पैठ बनानी है
राजनीति का द्वार सबके लिए खुला है
प्रियंका क्या परचम फहराती है
यह तो वक्त बताएगा
हो सकता है
भारतीय राजनीति को एक अच्छा नेता मिले
उनका स्वागत करना चाहिए

मध्यम वर्ग और बजट

पीयूष गोयल के बजट के पिटारे मे क्या है
वह तो कल ही पता चलेगा
आशा है मध्यम वर्ग के लिए तोहफा हो
इस वर्ग की सुध भी लेना चाहिए
सर्वाधिक टेक्स पेयर
बहुत सी सुविधाओं से वंचित
न वह अमीर है
न वह गरीब है
हमेशा परेशान
पढाई हो
चिकित्सा हो
घर हो या और कुछ
उनकी सैलरी लगती है बड़ी
पर वह तो महीने के अंत तक खत्म
घर के लिए कर्ज
बच्चों की शिक्षा के लिए
शादी ब्याह के लिए
आजार बीमारी के लिए
और फिर टेक्स की मार
वह बेचारा कभी उबर ही नहीं पाता
कुछ तो इनकी भी सुध ले सरकार

सफर

गाड़ी घण घण घणघणाती जाती रहती थी
हम सब खिलखिलाते रहते थे
न कोई चिंता
न कोई तनाव
बस सब बतियाते रहते
कब स्टेशन आ जाता
पता ही नहीं चलता
अरे उतर उतर चिल्लाने पर उतरते

आज भी वही सफर था
पर वह बात नहीं थी
साथी नहीं थे
अंजाने पर फिर भी अपने
सुख - दुख बांटने वाले

सेवानिवृत्त हो गए
अब तो रेल की घण घण कर्कश लग रही है
अकेले उब हो रही है
कब उतरा जाय

हंसी आ गई
अकेले और साथ
कितना फर्क पड़ता है
साथी हो तो मंजिल आसान हो जाती है
सफर आराम से कट जाता है
फिर वह जिंदगी का सफर हो
या रेलगाड़ी का

बृहस्पति व्रत कथा

jai mata di                                         ब्रहस्पत व्रतकथा
प्राचीन समय की बात है. किसी राज्य में एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा राज्य करता था. वह प्रत्येक गुरूवार को व्रत रखता एवं भूखे और गरीबों को दान देकर पुण्य प्राप्त करता था परन्तु यह बात उसकी रानी को अच्छा नहीं लगता था. वह न तो व्रत करती थी और न ही किसी को एक भी पैसा दान में देती थी और राजा को भी ऐसा करने से मना करती थी.
एक समय की बात है, राजा शिकार खेलने को वन को चले गए थे. घर पर रानी और दासी थी. उसी समय गुरु वृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने को आए. साधु ने जब रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे कि सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं.
वृहस्पतिदेव ने कहा, हे देवी, तुम बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी होता है. अगर अधिक धन है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुवांरी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग़-बगीचे का निर्माण कराओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें, परन्तु साधु की इन बातों से रानी को ख़ुशी नहीं हुई.
उसने कहा- मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे मैं दान दूं और जिसे संभालने में मेरा सारा समय नष्ट हो जाए. तब साधु ने कहा- यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो मैं जैसा तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना.
इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा. इतना कहकर साधु रुपी वृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए. साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई. भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा. तब एक दिन राजा रानी से बोला- हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूं, क्योंकि यहां पर सभी लोग मुझे जानते हैं. इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता.
ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता. इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा. इधर, राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुखी रहने लगी. एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी, पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है.
वह बड़ी धनवान है. तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए. दासी रानी के बहन के पास गई. उस दिन वृहस्पतिवार था और रानी की बहन उस समय वृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी. दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का सन्देश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया.
दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी. सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा. उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी. कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- हे बहन, मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी.
तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली. कहो दासी क्यों गई थी. रानी बोली- बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं था.
ऐसा कहते-कहते रानी की आंखे भर आई. उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तारपूर्वक सूना दी. रानी की बहन बोली- देखो बहन, भगवान वृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो. पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अन्दर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया.
यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई. दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सके. तब रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा. उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व ्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें.
इससे वृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं. व्रत और पूजन विधि बतलाकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई. सातवें रोज बाद जब गुरूवार आया तो रानी और दासी ने निश्चयनुसार व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई और फिर उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थे.
चूंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए गुरुदेव उनपर प्रसन्न थे. इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए. भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया. उसके बाद वे सभी गुरूवार को व्रत और पूजन करने लगी.
वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति हो गया, परन्तु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली- देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान गुरुदेव की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है.
बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति हो और पित्तर प्रसन्न हो. दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा.

COPY PEST

Wednesday, 30 January 2019

अहिंसा के पुजारी को शत शत नमन

गोली चली धाय धांय
मुख से निकला   हे राम
एक दो तीन
काम खत्म
अहिंसा के पुजारी की जान गई हिंसा से
सामने वाला तो महात्मा था
मारने वाला भी कोई गुंडा बदमाश नहीं
नाथूराम गोडसे था
प्रणाम कर गोली चलाना
यह भी तो सत्य था
क्या हुआ था
क्यों मजबूर था
यह तो वक्त के पन्ने पर कैद
पर उस दिन
हिंसा की विजय हुई थी
अहिंसा कहीं नजर नहीं आई
अहिंसा की लाठी से
अंग्रेजों का साम्राज्य ढहाने वाले बापू
का प्राणघातक हत्यारा अपना ही था
वह उसे नहीं बदल पाए
राजघाट पर शीश चढ़ाने आते हैं
श्रंद्धाजलि अर्पित करते हैं
तब यह तो तय है
उस दिन बापू ने शरीर छोड़ा था
सिंद्धांत आज भी जिंदा है
सदियों तक रहेंगे
आनेवाली पीढियां भी नमन करेगी
वास्तव में ऐसा इंसान हुआ था क्या??
यह सोचने पर मजबूर होगी
शत शत नमन
अहिंसा के इस महान पुजारी की
उनकी पुण्यतिथि पर

एकादशी व्रत

हरे कृष्ण
पवित्र एकादशी व्रत किस प्रकार करना चाहिए_________________________

एकादशी व्रत इस व्रत के पालन के लिए कौन सी चीजें खाई जा सकती हैं, सम्बन्धी कई नियम है, वैष्णव पंचांग के परामर्श के अनुसार ही व्रत करना चाहिये ताकि सही दिन व्रत किया जा सके।

एकादशी व्रत धारण करने के नियम
पूर्ण उपवास अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करने की बहुत ही उचित क्रिया है, परन्तु व्रत धारण करने का मुख्य कारण परम भगवान कृष्ण का स्मरण/ ध्यान करना है। उस दिन शरीर की जरूरतों को सरल कर दिया जाता है, और उस दिन कम सोकर भक्तिमयी सेवा, गीता शास्त्र अध्ययन और हरि नाम जप आदि पर ध्यान केन्द्रित करने की अनुशंसा की गई हैं।

व्रत का आरंभ सूर्योदय से होता है और अगले दिन के सूर्योदय तक चलता है, इसलिए अगर कोई इस बीच अन्न ग्रहण कर लेता है तो व्रत टूट जाता है। वैदिक शिक्षाओं में सूर्योदय के पूर्व खाने की अनुशंषा नहीं की गयी हैं खासकर एकादशी के दिन तो बिलकुल नहीं। एकादशी व्रत का पालन उस दिन जागने के बाद से ही मानना चाहिये। अगर व्रत गलती से टूट जाए तो उसे बाकि के दिन अथवा अगले दिन तक पूरा करना चाहिये।

वे जन जो बहुत ही सख्ती से एकादशी व्रत का पालन करते हैं उन्हें पिछली रात्रि के सूर्यास्त के बाद से कुछ भी नहीं खाना चाहिये ताकि वे आश्वस्त हो सके कि पेट में एकादशी के दिन कुछ भी बिना पचा हुआ भोजन शेष न बचा हो। बहुत लोग वैसा कोई प्रसाद भी नहीं ग्रहण करते जिनमें अन्न डला हो। वैदिक शास्त्र शिक्षा देते हैं कि एकादशी के दिन साक्षात् पाप (पाप पुरुष) अन्न में वास करता है, और इसलिए किसी भी तरह से उनका प्रयोंग नहीं किया जाना चाहिये ( चाहे भगवान कृष्ण को अर्पित ही क्यों न हो) । एकादशी के दिन का अन्न के प्रसाद को अगले दिन तक संग्रह कर के रखना चाहिये या फिर उन लोगों में वितरित कर देना चाहिये जो इसका नियम सख्ती से नहीं मानते या फिर पशुओं को दे देना चाहिये।

एकादशी व्रत को कैसे तोड़े...

अगर व्रत निर्जल ( पूर्ण उपवास बिना जल ग्रहण किये) किया गया है तो व्रत को अगले दिन अन्न से तोड़ना आवश्यक नहीं है। व्रत को चरणामृत ( वैसा जल जिससे कृष्ण के चरणों को धोया गया हो), दूध या फल से वैष्णव पंचांग में दिए नियत समय पर तोड़ा जा सकता है। यह समय आप किस स्थान पर हैं उसके अनुसार बदलता रहता है। अगर पूर्ण एकादशी के स्थान पर फल, सब्जियों और मेवों के प्रयोग से एकादशी की गयी हैं तो उसे तोड़ने के लिए अन्न ग्रहण करना अनिवार्य हैं।

खाद्य पदार्थ जो एकादशी व्रत में खाए जा सकते हैं
जगद्गुरु श्रीला प्रभुपाद ने पूर्ण एकादशी करने के लिए कभी बाध्य नहीं किया, उन्होंने सरल रूप से एकादशी फलाहार करके हरिनाम जप एवं भक्तिमयी सेवा पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने को कहा।
निम्नलिखित वस्तुएं और मसालें व्रत के भोजन में उपयोग किये जा सकते हैं:

सभी फल (ताजा एवं सूखें);
सभी मेवें बादाम आदि और उनका तेल;
हर प्रकार की चीनी;
कुट्टू
आलू, साबूदाना, शकरकंद;
नारियल;
जैतून;
दूध;
ताज़ी अदरख;
काली मिर्च और
सेंधा नमक ।
एकादशी पर वर्जित खाद्य
अगर अन्न का एक भी कण गलती से भी ग्रहण कर लिया गया हो तो एकादशी व्रत विफल हो जाता है। इसलिए उस दिन भोजन पकाते समय काफी सावधानी बरतनी चाहिये और मसालों को केवल नए पेकिंग से, जो अन्न से अनछुए हो, से ही लेना चाहिये।
निम्नलिखित खाद्यों का प्रयोग एकादशी के दिन निषेध बताया गया है :

सभी प्रकार के अनाज (जैसे बाजरा, जौ, मैदा, चावल और उरद दाल आटा) और उनसे बनी कोई भी वस्तु;
मटर, छोला, दाल और सभी प्रकार की सेम, उनसे बनी अन्य वस्तुएं जैसे टोफू;
नमक, बेकिंग सोडा, बेकिंग पावडर, कस्टर्ड और अन्य कई मिठाईयों का प्रयोग नहीं किया जाता क्योंकि उनमें कई बार चावल का आटा मिला होता है;
तिल (सत-तिल एकादशी अपवाद है, उस दिन तिल को भगवान् को अर्पित भी किया जाता है और उसको ग्रहण भी किया जा सकता है)
और मसालें जैसे कि हींग, लौंग, मेथी, सरसों, इमली, सौंफ़ इलायची, और जायफल।

एकादशी के दिन व्रत धारण करना कृष्ण भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण तप है और यह आध्यात्मिक प्रगति को बढ़ाने के लिए किया जाता है। बिलकुल निराहार व्रत करके कमजोर होकर अपनी कार्यों एवं भक्तिमयी सेवाओं में अक्षम हो जाने से बेहतर है थोड़ा उन चीजों को खाकर व्रत करना जो व्रत में खायी जा सकती हैं।

इस कलियुग का महामंत्र 👇नित्य जपें और खुश रहें ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

हरे कृष्ण।
    COPY.  PEST

तभी तो वह मानव है

पशु आखिर पशु है
पशुता उसका धर्म और कर्म
नोचना और खसोटना
काटना और मारना
चिल्लाना और चिंघाड़ना
बेखौफ और डरावना

मनुष्य आखिर मनुष्य है
प्रेम और नम्रता
दया और करुणा
सहयोग और सद्भभावना
इंसानियत और मानवता

यही वजह से दोनों अलग
नहीं तो दोनों मे कोई फर्क नहीं
शरीर ही नहीं
मन है भावना है
पशुता से परे मानवता है
तभी तो वह
एक पशु है
       दूसरा मानव है

शब्द अनमोल है

शब्द मर्म है
शब्द माया है
शब्द ममता है
शब्द त्याग है
शब्द आँसू है
शब्द स्नेह है
शब्द अपनत्व है
शब्द गति है
शब्द धडकन है
शब्द प्रेरणा है
शब्द घृणा और तिरस्कार भी है
शब्द विरह है
शब्द संपत्ति है

जीवन को चलायमान
जीवन को गतिशील
जीवन को सार्थक
जीवन को दूसरों के साथ जोड़ना
यही उसका कर्म
उसका धर्म
उसका सत्य

शब्द का भंडार विशाल
उसमे गोते नहीं लगाना है
संपत्ति को संभाल कर रखना है
सोच समझ कर खर्च करना है
यह विशाल संपदा
बेबात पर व्यर्थ नहीं करना है
अनमोल है
इसके मोती को चुनकर इस्तेमाल करना है

शब्द भी बोलते हैं

शब्दों का अपना संसार
शब्द अच्छे हो सकते हैं
बुरे हो सकते हैं
मीठे हो सकते हैं
कड़वे हो सकते हैं
कठोर हो सकते हैं
नम्र हो सकते हैं
व्यंग्य हो सकते हैं
मजाकिया हो सकते हैं
पीडादायक हो सकते हैं
भावनात्मक हो सकते हैं
हास्यास्पद हो सकते हैं

सारी सृष्टि शब्दों के मायाजाल मे जकडी है
कुछ हंसाते हैं
कुछ दुखी करते हैं
कुछ अंदर तक भेद जाते हैं

शब्द ही जो थे महारानी द्रौपदी के
अपमानित दुर्योधन और महाभारत का एक कारण
शरीर का घाव भर जाता है
शब्दों के घाव नहीं
व्यक्ति उसी मे अपना जीवन केन्द्रित कर लेता है
वह बदले की भावना हो
या फिर प्रेम की
कभी कभार मौन का चोला भी पहन लेता है

शब्द दूर ले जा सकते हैं
पास ला सकते हैं
प्रेम और भाईचारा निर्माण कर सकते हैं
वैमनस्यता बढ़ा सकते हैं
यहाँ तक कि जान भी ले सकते हैं

जीवन मे शब्दों का चयन सोच समझ कर करना है
शब्दावली गरिमामय हो
एक बार निकल गए
तब वापसी भी नामुमकिन
शब्दों से ही तो संसार संचालित
शब्द ही संस्कृति
शब्द ही संसार
शब्द ही संस्कार
शब्द ही हमारी पहचान

Tuesday, 29 January 2019

लुकाछिपी जिंदगी का

बचपन मे लुका छिपी खेला जाता
बचपन भोला और मासूमियत से भरा था
कोई दिखावा नहीं
जो है जैसा है वैसा ही दिखता
बड़़े हुए
बड़प्पन ने दस्तक दी
कुछ बताते
कुछ छिपाते
यह एक अलग तरह का लुकाछिपी का खेल था
कुछ सच
कुछ झूठ
कुछ बनावट
कुछ दिखावट
मुखौटा ओढ़े रहे
एक ही नहीं
एक के बाद एक मुखौटा ओढ़ते रहे
बचपन की सच्चाइ - मासूमियत कही गायब
अब तो लगता है
जिंदगी ही लुकाछिपी का खेल रही है
कब खुशियों से भर जाएगी
कब दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा
जब तक हम संभले
हंसती हुई
मुंह चिढ़ाती गायब

रंगों का संसार

रंग का भी अपना संसार
हर रंग कुछ कहता है
रंगों का अपना इतिहास
रंगों की अपनी संस्कृति
हरा है समृद्धि का
लाल है मंगल का
नीला का नीलम से
पीले का पुखराज से
रत्नों से भी रत्नाकर से भी
ज्योतिष भी इनसे संबंधित
ईश्वर भी रंगों मे परिचित
काला शनिदेव का
सफेद भगवान शिव का
चंद्रमा का भी
शांति का भी
मृत्यु के बाद की अचर शांति
कफन का रंग भी सफेद
सफेद मे ही सब रंग समाए
जीवन इंद्रधनुषी रंग से बना
सफेद से ही निर्माण
सफेद मे ही अंत
शांति मे लीन हो प्रस्थान
यही है रंगों का संसार ।

शब्द ही हमारी पहचान है

मैं ही शब्द
मैं ही अर्थ
मैं ही एहसास
मैं ही दुनिया- संसार
मैं ही सृजनहार
खेल है शब्दों का
शब्दावली बेशक अलग - अलग
यह उम्र हमें नचाता है
अपना जाल बिछाता है
बाद मे तमाशा भी देखता है

अतीत के भंवर मे गोते लगाता
कानों मे कुछ न कुछ फुसफुसाता
धीरे धीरे हम पर हावी हो जाता
हमें बरगलाता
अपनी गिरफ्त मे कस कर धर लेता
हम छटपटाते रहते
लेकिन बाहर न निकल पाते

भविष्य मे भी गोते लगाते
लगातार उसी पर विचार करते
आने वाले कल की चिंता मे
अपना आज भी दांव पर लगा देते

बेचारा वर्तमान इन दोनों के बीच पीसता रहता
कभी चैन की सांस नहीं लैता
स्वयं को जी ही नहीं पाता
जबकि वह भी जानता है
सत्य केवल वही है
पल भी वही है
समय भी वही है

चलो इस मायाजाल से मुक्त हुआ जाय
अपने शब्दों को कायम रखा जाय
जो हुआ सो हुआ
जो होगा सो होगा
उसमे वक्त नहीं गंवाना है

चाहा - अनचाहा
पसंद - नापसंद
मान - अपमान
इन सबसे परे हटना है
हम जो है वह हमारे शब्दों से हैं
शब्द ही हमारी पहचान है ।

Sunday, 27 January 2019

आज वह बात नहीं है

तब पैसा न था
समय न था
साथ भी न था
किराए का घर था
आज पैसा भी है
समय भी है
साथ भी है
अपना घर भी है
पर वह बात नही है
उम्र बीत गई
गृहस्थी का जुगाड़ करते
मैं और तुम अलग-अलग
नौकरी के कारण
वर्ष में दो या तीन बार छूट्टी
पर वह भी साथ सुकून से नहीं
जब तुम आते
पर मैं काम पर रहती
शाम को थकी हारी आती
कभी बच्चों की पढाई आड़े
कभी घूमने नहीं गए
रिटायर होने पर जाएंगे

आज वह भी वक्त आ गया
सेवानिवृत्त हो गए
बच्चे बड़़े हो गए
अपना घर हो गया
पर शौक अधूरे ही रह गए
शरीर थक गया है
बीमारियों ने घेर लिया है
कान्फीडेंस रहा नहीं
अब तो रास्ता क्रास करने मे भी डर
जहाँ पहले दौड़ कर बस और ट्रेन पकड़ने वाले
पैर अब खिसकते घसीटते लगते हैं
हाथ कांपते हैं
दृष्टि धुमिल हो चली है
आत्म नियंत्रण कम हो गया है
खर्च को पैसा भी है
पर वह बात नहीं है

हम भी वही
तुम भी वही
पर लोग अजनबी लगते हैं
वक्त जो बदल गया है
जब स्वयं का शरीर ही साथ न दे
तब दूसरों से क्या अपेक्षा
ईश्वर से भी कोई शिकायत नहीं
जीवन है
पर वह बात नहीं है

जूते को मत समझिए साधारण

जूता सबसे उपेक्षित
घर की जूती है यह तो सबसे प्रचलित मुहावरा
दरवाजे के किसी कोने मे इसकी जगह
इसका महत्व सबसे अंत
कभी सोचा है यह उपेक्षित
हमारे पूरे शरीर का भार उठाता है
होता है हल्का पर रहता मजबूती से
यह हमें बहुत कुछ सिखाता है

कंकड़ आ जाय तो यह सहन नहीं करता
उसको निकाल कर ही दम लेता है
अनचाहा को बर्दाश्त नहीं करना है

नया होता है तो काटता है
धीरे धीरे अभयस्त हो जाता है
यानि नये को स्वीकार करना है
चाहे वह टेक्नोलॉजी हो या रिवाज

हमेशा जोड़ी मे रहता है
एक न रहे तो दूसरा बेकार
यानि जीवन में अकेले नहीं
साथ चलने मे सार्थकता है
एक आगे तो दूसरा पीछे
फिर भी द्वेष नहीं
सहयोग की भावना

हमेशा इसको पालिश और सफाई की जरुरत
नहीं तो गंदा और बदबूदार
जीवन की कुछ सड़ियल बातों को छोड़ना है
हर वक्त समय के अनुसार चलना है

कड़ी धूप ,कड़कती ठंडी
कीचड भरी बरसात
हर मौसम का सामना
यही तो हमें भी करना है
हर परिस्थिति का सामना करना है
घबराना कतई नहीं है

यह कम कीमत में भी उपलब्ध
मंहगे से मंहगा भी
अमीर गरीब
जाति धर्म
प्रांत देश
सुंदर या साधारण
सबकी आवश्यकता
कोई भेदभाव नहीं

है तो यह जूता
पर संदेश देता बड़ा

जीवन और मोबाइल

मोबाइल है
लाइक और डिसलाइक
पसंद और नापसंद
अच्छा और बुरा
यह तो संभव है
ब्लाक कर
डिलेट कर
सब कुछ संभव है

यह संभावना हर  जगह नहीं
कुछ यादें जो मिटाए नहीं मिटती
वह अच्छी हो सकती है
बुरी हो सकते है
पसंद हो सकती है
नापसंद हो सकती
चाहा या अनचाहा भी

इसे डिलेट या ब्लॉक नहीं कर सकते
चाहकर भी
कुछ मुस्कान लाती है
कुछ भावविभोर करती है
कुछ आँसू ले आती है
कुछ परेशान भी करती है
लेकिन इस पर बस नहीं
यह हमारे साथ ही रहती है ताउम्र

मोबाइल और जीवन मे यही फर्क है
वह मशीन है
निर्जीव है
जीवन सजीव है
चेतन है
उसके पास वह बटन नहीं है
स्वीच आँफ करने का
ब्लाक करने का
डिलीट करने का
हम मोबाइल को संचालित करते हैं
मोबाइल हमें नहीं
मशीन जीवन तो नहीं है
हो भी नहीं सकता
तरक्की कितनी भी हो
जीवन सब पर भारी है