पुरूष बेचारा
घर का न घाट का
बचपन में माँ कहती है
तुझे कुछ समझ नहीं आता
शादी होने के बाद पत्नी कहती है
तुमको कुछ समझ नहीं आता
बूढ़े होने पर बच्चे कहते हैं
आपको कुछ समझ नहीं आता
अब उसको क्या समझना है
दही और धनिया का भाव
इमली और अचार की खरीदारी
बर्तन धोने और झाडू लगाना
नाश्ता और खाना बनाना
ऑफिस की जिम्मेदारी अलग
वह यह समझता तो
पढता कैसे
नौकरी के लिए धक्के खाता कैसे
घर का भार उठाता कैसे
सबकी ख्वाहिशे पूरी करता कैसे
औरत काम करें या न करें
मर्द को तो करना है
वह कैसे घर बैठ सकता है
अब तो जमाना यह आ गया है
बहू को भले कुछ न आता हो
वह काम करे या न करें
पर सास को जरूर कहेंगी
आपने सिखाया क्या है
यह नहीं सोच रहे
अच्छा इंसान बनाया है
आत्मनिर्भर बनाया है
एजुकेटेड बनाया है
सबकी इज्जत करना सिखाया है
पर यह सब बातें तो बाद की
पुरूष जाति की सबसे बडी त्रासदी कि
उसके साथ किसी की सहानुभूति नहीं
वह परफेक्ट होना चाहिए
घर काम के साथ साथ कमाना भी चाहिए
वह करता भी है यह सब
तब भी आए दिन सुन ही लेता है
कुछ नहीं आता
कुछ नहीं कर सकते
कुछ समझता नहीं है
कभी-कभी तो पत्नी और आगे बढ जाती है
बेवकूफ और गधा भी कह डालती है
बेचारा पुरूष
वाकई तरस आता है तुम पर
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Sunday, 31 May 2020
बेचारा पुरूष
एक बात तो हुई
एक बात तो हुई
हम नहीं चाहते थे
तब भी देख कर जबरन मुस्कराते थे
औपचारिकता वश
जबकि मन देखना भी नहीं गंवारा करता था
अच्छा है
मास्क लगे हैं आज
ढोंग और दिखावा नहीं करना पडता
मन में द्वंद्व और द्वेष
ऊपर से जोश में गलबहियाँ करना
हाथ मिलाना
उससे छुटकारा
दूर ही रहो भाई
यह मिलना - मिलाना छोड़ो
सोशल डीशस्टिंग का पालन करो
न जबरदस्ती मुस्कान बिखेरने की जरूरत
न हाथ मिलाने की जरूरत
न किसी को खराब और बुरा लगना
सब नकाबपोश
अच्छा हुआ
अब जो है जैसे है
मन मर्जी के मालिक हैं
एक बात तो अच्छी हुई
अस्पताल का निर्माण किया जाय
अब भी संभल जाओ
मंदिर और मूर्ति को छोड़ अस्पताल निर्माण करो
पूजाघर कम रहेंगे तब भी कोई बात नहीं
ईश्वर के दर्शन कर लेंगे
जीवित रहेंगे तभी न
आज अस्पताल खुले है
पूजास्थल बंद है
अस्पताल की संख्या कम पड रही है
हर कस्बे , गाँव और कुछ कुछ दूरी पर धार्मिक स्थल
पर हर जगह अस्पताल नहीं
जनसंख्या के अनुपात से अस्पताल नहीं के बराबर
महान विभूतियों के स्टेच्यू बनाए जा रहे हैं
करोडों रूपए खर्च
भव्य से लेकर छोटे छोटे तक
न जाने कितने
जिन पर पक्षियों का बसेरा
बीट पडे हुए
जो उनका भी अपमान
इससे अच्छा तो मानव सेवा की खातिर
उसी जगह में उनके ही नाम से छोटा दवाखाना होता
आज संकट काल में महसूस हो रहा है
किसकी आवश्यकता है
ऐसा नहीं कि पहले से नहीं है
बीमार होने पर अस्पताल में कैसे एडमिट होंगे
कौन सा और कितना खर्चीला
लेंगे कि नहीं
यह भी सोचना पडता है
हर एक दो किलोमीटर के दायरे में अस्पताल हो
बीमार होने पर यह चिंता न करनी पडे
स्वस्थ रहेंगे तभी ईश्वर का दर्शन भी करेंगे
जिंदा रहेंगे तभी पूजा-पाठ भी करेंगे
कहते हैं न
भक्त से ही भगवान है
Saturday, 30 May 2020
रफ बुक यानि घर का मुखिया
रफ नोटबुक यानि घर का मुखिया
मुख्य है पर उसकी कोई गिनती नहीं
न तीन में न तेरह में
जिसका मन हो वह सुना जाए
सब अपनी मर्जी करें
वह सबकी मर्जी से चले
रफ नोटबुक जो होती है
न उस पर अच्छा कवर
न उसकी बाइन्डिग
न मंहगी
पुराने पन्नों को फिर से जोड़ लिया
या पिछले साल की बची हुई
या एक दो पन्ने लिखी हुई
बना लो कैसे भी
उसे कौन देखने और चेक करने वाला है
उसकी कोई अहमियत नहीं
पर बैग भरते समय उसे जरूर रखना है
भूल गए तो मुश्किल
और दूसरे भूल जाएंगे तो वह काम आएगी
गणित करो
भाषा करो
होमवर्क लिखो
चित्र बनाओ
अनाप शनाप लिखो
टाइम पास करो
एक्स्ट्रा जो करना है वह करों
पर रफ बुक के बिना काम नहीं चलने वाला
घर के मुखिया को कैसे भी घर चलाना है
सबके खाने पीने और रहने का प्रबंध करना है
अपनी इच्छाओ का त्याग करना है
सब पूरा करते करते वह भले थक जाय
उसकी परवाह किसी को नहीं
कुछ दोषारोपण करना हो कर दो
शिकायत करो
सब उसे कोसे
पर उसके बिना काम किसी का न चले
सबकी अपनी-अपनी मजबूरी
उसकी मजबूरी है अलग
सबको जोड़कर रखना
किसी को बिखरने मत देना
कहने को है मुखिया
पर सबसे उपेक्षित
न बोल सकता है
न डाट सकता है
न फरियाद कर सकता है
वह रफ बुक है
जिसके बिना स्कूल बैग अधूरा
मुखिया बिना घर अधूरा
सारे अधिकारो का हनन
तब भी कहलाता है मुखिया
विचार को सुना जाए
हवा आती जाती है
तभी अच्छी लगती है
बंद हवा में दम घुटता है
अलग तरह की स्मेल आने लगती है
खिड़की - दरवाजे बंद हो
ए सी , पंखा , कूलर चल रहा हो
तब भी ताजा तरीन हवा का मुकाबला नहीं
खुली हवा में सांस लेना अच्छा लगता है
घुटन भी महसूस नहीं होती
हवा को बांध कर नहीं रखा जा सकता
विचारों का भी यही है
विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए
समय-समय पर अवगत कराना चाहिए
इतना खौफ न रखा जाए
कि विचार प्रकट ही न हो पाए
मौका दिया जाए
बात सुनी जाएं
वह छोटा हो या बड़ा
दबाने से कभी न कभी विस्फोट होगा
विचार को खुलने दीजिए
हिलने मिलने दीजिए
घर हो या बाहर
इतनी पाबंदी न हो
हर व्यक्ति मुक्त हो विचार रख सके
तभी सबमें सौहार्द कायम रह सकता है
महाभारत कब तक चलेगा
महाभारत चल रहा है
देश महामारी के युद्ध से गुजर रहा है
धृतराष्ट्र ऑखे बंद किए हैं
भीष्म को कोसा जा रहा है
विदुर नीति कुछ काम नहीं कर रही है
दुर्योधन अपनी ही बात कर रहा है
कोई किसी की नहीं सुन रहा है
द्रोणाचार्य और कृपाचार्य मौन बैठे हैं
जम कर एक दूसरे का चीर हरण किया जा रहा है
वाक् युद्ध जारी है
रणनीति बन रही है
कब किसको सत्ता से बेदखल किया जाय
कब चौसर की गोटी बिछाई जाय
रुपयों और सत्ता के लालच से नेता खरिदे जाय
कर्ण और शल्य को अपनी तरफ किया जाय
मामा शकुनि को इस खेल में लगाया जाय
निष्ठा को पैसे के तराजू से तोला जाय
जो मिले उसे खरिद लो
अपनी तरफ कर लो
सुई के नोक के बराबर भी जमीन नहीं
इस हठ पर अडे रहो
विपक्ष को खत्म करो
बस अपना राज हो
नहीं कोई टोका-टोकी
नहीं कोई रोक टोक
बस हिटलर शाही हो
जब जो निर्णय ले लो
जो नियम बनाना बना लो
कोई मरता है तो मरे
यह तो उनकी नियति है
बेघर होना है तो हो
वह हमारी जिम्मेदारी थोड़ी ही है
जो पहले वाले कर गए हैं
वह उनकी है
क्यों भीष्म ने पिता की बात मानी
क्यों नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी
क्यों वह घरबार छोड़कर जेल में रहे
ऐसा नहीं करते
तब ब्रिटिश शासन होता
हम गुलाम रहते पर खुशहाल रहते
पता नहीं कब तक चलेगा यह महाभारत
तब तक तो जनता सडकों पर चल ही रही है
सुदर्शन चक्रधारी की जरूरत है
उनका भी कब आगमन
कोई नहीं जानता
बाप तो बाप होता है
बाप तो बाप होता है
हर हाल में बच्चों का भार ढोता है
अपने स्वयं कपडे पुराने पहनता
बच्चों को नया पहनाता
दिन रात एक करता
अपना निवाला उनके मुंह में डालता
सर पर बोझ लेकर चलता
बैल की जगह खुद भी जूत जाता
श्रम पसीना एक करता
संतान के भविष्य को बनाता
कहना बहुत कुछ चाहता
कह नहीं पाता
उसकी कठोरता संतान को नहीं भाता
उसके अंदर की कोमलता कोई देख नहीं पाता
वह भी चाहता तो आराम से रहता
वह ऐसा नहीं करता
वह दशरथ की तरह पुत्र मोह में प्राण भी देता
वह धृतराष्ट्र की तरह इतिहास में बदनाम भी होता
वह किसी से नहीं हारता
अपनी संतान से हारता
कितना प्रेम करता
वह नहीं किसी को दिखता
माता का प्रेम जग-जाहिर
पिता का प्रेम उसका उल्लेख कहीं नहीं
आसमान की छत्रछाया है पिता
धरती डोलती है
आसमान नहीं डोलता
नदी पिघलती है
पर्वत नहीं पिघलता
वह प्रहरी बन हमेशा खडा रहता
टूट जाता है
पर झुकता नहीं
वह पिता है
संतान से उपेक्षित
फिर भी उसके लिए चिंतित
घर का कर्ता धर्ता
सब कुछ पिता
सब निश्चिंत होते
जब तक साथ रहता पिता का
अपने से ज्यादा संतान को प्यार करता
बाप तो बाप होता है
हर हाल में बच्चों का भार ढोता है
Friday, 29 May 2020
कब मेरी मुंबई फिर रौनक होगी
कब मेरी मुंबई फिर रौनक होगी
कब रोशनी से नहाएंगी
कब हम मरीन ड्राइव का नजारा देखेंगे
कब समुंदर की लहरों के साथ खेलेंगे
कब बडा पाव और कटिंग चाय का मजा लेंगे
कब इटली और डोसे वाले की भोंपू की पौ पौ सुन झांकेगे
कब भेलपुरी और शेवपुरी वाले भैया का शाम होने का इंतजार करेंगे
कब पाव भाजी के ठेले पर जमा होंगे
कब चलते चलते चना सींग खाएंगे
कब ढोकला और फाफडा साथ में चटनी का चटखारे लेंगे
कब गरम गरम जलेबियाँ तलने का इंतजार करते खडे रहेंगे
कब भाखरवाडी और कचोरी का स्वाद लेंगे
कब मोनजीस कप केक लेकर खाएंगे
ऐसे ही रातों में बिना कारण घूमेंगे
कब लोकल की भीड़ में धक्के से चढेगे
धक्का खाकर उतर भी जाएंगे
कब बेस्ट की बस को सिगनल पर खडा देख दौड़ लगाएंगे
कब होटल और रेस्तरां गुलजार होंगे
कब वह सुलभ शौचालय के बगल में ठेले वाले से लेकर भुर्जी पाव खाएंगे
गन्ने का जूस , नारियल पानी सब गायब है
घर का खाना तो है
लाजबाब पकवान भी बन रहे हैं
पर जो स्वाद इन ठेलो के व्यंजनों का
खाऊगली के पकवानों का
ईरानी के मस्का पाव का
उसकी तो कोई तुलना नहीं
घर की लहसुन की चटनी में वह बात कहाँ
डोसे वाले के सांभर और रसम में जो वह घर में कहाँ
सुबह-सुबह पोहा , उपमा और दाल पकौड़ा
साथ में मीठा शीरा
वह मिठास कहाँ
जेब टटोला जाता था
अब कितने बचे
और क्या क्या खा सकते हैं
सस्ता - मंहगा सब
जैसी जिसकी जेब
सब याद आ रहे हैं
मन मसोसकर रह जा रहा है
कब गलियाँ और रास्ते गुलजार होंगे
कब मेरी मुंबई हंसेगी , खिलखिलाएगी
भीड़ लगाएंगी
कब मेरी मुंबई फिर रौनक होगी
कर दो चमत्कार
क्या भगवन आप भी मौन है
ताले में है
आपके दर्शन को सब प्यासे हैं
कुछ तो करो चमत्कार
सबकी परेशानी हो जाय दूर
यह करोना हो जाय छूमंतर
सब फिर घर से निकले बाहर
पहले जैसी ही हो चहल-पहल
मंदिरो की घंटिया
मस्जिदों की अजान से सब हो गुलजार
आरती और भजन की गूंज हो
कपाट खुलने का सबको इंतजार हो
दर के बाहर भीड़ हो
दर्शन की कतार हो
प्रसाद की छीना-झपटी हो
दीप शांत दिख रहे
फूलों की मुस्कान गायब है
वो चरणों में चढने को प्रतीक्षारत
अब तो दया करो
सब है लाचार
तुम ही कर सकते हो चमत्कार
सबका साथ तभी देश का विकास
करोना की मार तो अभी पड ही रही है
उबरेगे कब पता नहीं
टिड्डियो का आक्रमण मुसीबत बन उभरा है
फसल की फसल चट हो जा रही है मिनटों में
चीन अलग ऑख दिखा रहा है
सीमा पर विवाद फैला रहा है
छोटा भाई नेपाल न जाने किसकी शह पर उछल रहा है
वह भी युद्ध की बातें कर रहा है
आंतकवादी भी घात लगाकर बैठे हैं
चहुंओर समस्या ही समस्या
यह सब हो रहा है
नेता तब भी बयानबाजी कर रहे हैं
जरा चेत जाओ
जो करना है वह करों
नेता चुना है तब कुछ फर्ज भी है
आगे आओ
सब साथ मिलों
पक्ष और विपक्ष छोड़ दो
यही समय है एकता दिखाने का
भलाई करने का
अब नहीं करोगे तो फिर कब करोंगे
देश सबका है
तुम देशभक्त तो दूसरे भी देशद्रोही नहीं
सबका साथ तभी देश का भला और विकास
Thursday, 28 May 2020
भारत के हालात
जब रोम जल रहा था
नीरो बंशी बजा रहा था
आज भारत सडकों पर है
मर रहा है
कट रहा है
तब महानायक का पता नहीं
थाली भी बजी
ताली भी बजी
रोशनी भी हुई
फूल भी बरसे
जिनके लिए यह सब हुआ
उनके लिए इंतजाम क्या ??
वे भी जान गंवा रहे हैं
अपना कर्तव्य बजा रहे हैं
उनको क्या सुविधा मुहैया कराई गई
उनकी सुरक्षा के क्या इंतजाम हुए
यह काम किसका है
सोनू सूद का
रतन टाटा का
या फिर हमारे नेताओं का
हर व्यक्ति त्रस्त
वह मजदूर हो
गरीब हो
मध्यम वर्ग हो
नौकरी पेशा हो
उधोग धंधे वाले हो
इंजीनियर हो
आई टी प्रोफेसनल हो
मजदूर सडकों पर
पुलिस सडकों पर
डाक्टर और नर्स
अस्पताल कर्मचारी
अस्पताल में जान पर खेल रहे
दूसरों की जान बचाने में
नेता बयानबाजी में
भारत के हालात
रोम जैसे ही हो रही
यह जून अजब है
जून दस्तक देने वाला ही है
ऐसा नहीं यह जून हर साल नहीं आता था
हाँ इस समय की बात कुछ अलग है
हर साल जून आते ही तैयारियां शुरू हो जाती थी
एकाडमिक ईयर जो शुरू होता था
आज की वस्तुस्थिति अलग है
परीक्षा ही नहीं हुई
सब घर में बंद
न कोई कहीं जा पाया
न बच्चे खेल पाएं
न मजा मस्ती
पैरेन्टस भी प्रतीक्षा करते
कब छुट्टी खत्म हो
कब स्कूल खुले
थोड़ी शांति मिलेगी
बच्चों का भी प्रतीक्षारत
अपने दोस्तों से मिलना
स्कूल बस में मस्ती करना
नये किताब और काॅपी खरिदना
नया ड्रेस , नया बस्ता , नया कम्पस बाक्स
पढाई से डर
पर स्कूल तो जाना है
फिर बरसात भी शुरू
छप छप करना
नये रेनकोट और छाते
आते जाते उडाते चलना
जान बूझ कर भीगना
झुंड के झुंड में खडे रहना
क्लास में अपनी सीट पर कब्जा
नई क्लास टिचर
यह दिन नया होता था
स्कूल तो पुराना
हर जून नया
यह जून तो अजब है
न कोई हलचल
न कोई तैयारी
बस सब असमंजस में
तुम भी तो यह समझा करो
बहुत दुख होता है
जब मैं तुम पर चिल्लाती हूँ
चाहती नहीं
फिर भी हो जाता है
बाद में पछताती हूँ
तुम भी तो जिद करती हो
एक बार मे कोई बात नहीं मानती हो
मैं भी तो इंसान हूँ
मेरी भी उम्र हो गई
अब मैं बच्ची नहीं रही
टोका-टोकी अब नहीं भाता
अब न सीखना है
न अलग से कुछ करना है
जो हूँ जैसी भी हूँ
बस हूँ
अब मैं भी थक गई हूँ
तुमको बोल तुमसे ज्यादा दुखी मैं होती हूँ
दूसरे क्या समझेंगे
उनको तो लगता है
यह बूढी पर चिल्लाती है
यह तो नाता है
माँ - बेटी का
हर कोई उसे नहीं समझ सकता
माँ मैं भी अब बडी हो गई हूँ
वह बच्ची नहीं रही
तुम भी तो यह समझा करो
कितना संघर्ष , कब तक संघर्ष
कितना संघर्ष
कब तक संघर्ष
जब तक जीवन
तब तक
जब तक सांस
तब तक
थक मत
चलता रह
बैठ मत
खडा रह
लडखडा मत
सीधा रह
हर जतन
हर प्रयत्न
कब तक
जब तक जीवन
तब तक
हर दिन की एक नई कहानी
उसको अपने हाथों से लिखना है
भाग्य भरोसे नहीं बैठ रहना है
संघर्षों बिना जीवन का मजा अधूरा
हर संघर्ष है जुदा जुदा
सबसे है लडना
लडकर जीतना
यही संघर्ष की गाथा
जो गाती सदियों तक
करती कर्मों का गुणगान
यह मत सोच
कितना संघर्ष
कब तक संघर्ष
भारतीय रेल भी रास्ता भटक रही है
जाना था रंगून पहुँच गए चीन
यह गाना काफी बार सुना था
पर आज वह सच हो रहा है
सत्तर साल में यह तो नहीं हुआ
रेल अपना रास्ता भटक गई
वह भी एक नहीं
कई कई ट्रेने
जाना था गोरखपुर पहुँच गई उड़ीसा
ऐसा गफलत भारतीय रेल में
नेता तो रास्ता भटक ही गए हैं
आपस में बडबोल
एक दूसरे पर दोषारोपण
देश का मुखिया मौन
धर्म की और नफरत की राजनीति
यह चुनाव का समय नहीं है
आपदा का है
सत्ता की जोड़ तोड़ बाद में कर लेना
इस समय सही राह पर आओ
न खुद भटको
न रेल को भटकने दो
Wednesday, 27 May 2020
दो हजार बीस का कहर कोई नहीं भूल पाएगा
यह वक्त भी गुजर जाएंगा
पर बहुत कुछ छोड़ जाएंगा
पर जाते जाते न जाने कितनी तबाही मचा जाएगा
किसको किसको उजाड़ जाएंगा
कितनों को अनाथ कर जाएंगा
कितनों को अपनों से अलग कर जाएंगा
कितनों को मायूस और बेबस कर जाएंगा
कितनों को बेकारी के दलदल में छोड़ जाएंगा
कितनों को बेघर कर जाएंगा
कैसे कोई भूला पाएंगा वह मंजर
जब अपने तडप रहे थे
वे असहाय थे
अपनों को रूखसत करने के लिए
चार कंधों का सहारा न दे पाए
उनके साथ चार कदम न चल पाएं
आखिरी क्षण में उनसे बात न कर पाएं
उनका दर्शन न कर पाएं
यह तो दर्द की इंतेहा है
लोग सडकों पर भूखों मर रहे
अस्पताल में वेंटिलेटर के अभाव में दम तोड़ रहे
पटरी पर कटकर मर रहे
डर के मारे सुशाइड कर रहें
अपने दूधमुहे बच्चे को देखने से तरस रहे
अपने ही अपनों के पास नहीं जा पा रहे
न उनकी देखभाल कर पा रहे
बस अस्पताल के सहारे छोड़ रहे
पुलिस डाॅक्टर नर्स
सब मजबूर
जान जोखिम में डाल कर काम किए जा रहे
अपनी जान भी गंवा रहे
समझ नहीं आ रहा
कैसे इसे कंट्रोल करें
सभी के चेहरे पर डर
माथे पर शिकन
कब क्या हो नहीं मालूम
सब दुविधाग्रस्त
लाकडाऊन कर काम धंधा छोड़
मुख पर मास्क लगाएं सब बैठे हैं
स्कूल और कॉलेज भी बंद
भविष्य भी कमरे में ही बंद
कुछ सीख रहा है
आगे की सोच सब पर पानी पडा
कब ये सामान्य होगा
कब जीवन पटरी पर दौड़ेगी
यह वक्त भी गुजर जाएंगा
पर बहुत कुछ छोड़ जाएंगा
दो हजार बीस का कहर कोई नहीं भूल पाएगा
मासिक धर्म को उपेक्षित नजरों से क्यों देखे
मैं इतना उपेक्षित
इतना तिरस्कृत
कोई मुझे पसंद नहीं करता
सब मुझे बोझ समझते हैं
यहाँ तक कि छुपाया जाता है
रसोईघर में प्रवेश की मनाही
ईश्वर के दरबार में भी यही हाल
शायद यह नहीं समझते
मैं मानव जाति के लिए वरदान
मुझसे ही सृष्टि
मैं नारी जाति का अभिन्न भाग
मेरे बिना हर नारी अधूरी
हर कोई यौवनावस्था में प्रवेश करने पर मेरी बाट जोहता
पुरूषो के सामने या और सदस्यों के सामने उच्चारण करने में भी शर्म
ऐसा नहीं कि कोई मुझसे परिचित नहीं
फिर भी हेय दृष्टि से देखना
यह परंपरा सदियों से
आज बदलाव आ रहा है
तब मुझे भी अच्छा लग रहा है
मैं किसी की उन्नति में बाधक नहीं बन रहा
महीना , मासिक धर्म , पीरियड इनसे मैं जाना जाता
अब धारणा बदल रही है
सोच बदल रही है
स्वीकार किया जा रहा है
ऑसू का स्राव , स्वेद का स्राव
वैसे ही रक्त स्राव
यह तो शरीर की नैसर्गिक क्रिया है
इसमें छुपाना
शर्माना
कोई वजह नहीं
इसे सामान्य भाव से स्वीकार करना चाहिए
सबसे बड़ी मेहरबानी
खुशी कहीं बाहर नहीं
यह तो हमारे मन में
सब कुछ मिलकर भी कोई खुश नहीं
अभावो में भी कुछ खुश
खुशी का कोई पैमाना नहीं
कुछ लोगों के बीच खुश
कोई अकेले में खुश
कोई काम करने से खुश
कुछ आराम में ही खुश
कोई घर में रहकर खुश
कोई बाहर भटक कर ही खुश
किसको किससे खुशी
वह तो वही जाने
हम तो बेकार में दूसरों की खुशी को अपने तराजू से तौलते हैं
जबकि वह बेमानी है
आप अपने काम से काम राखिए
किसी की खुशी में दखलअंदाजी नहीं
यही होगी सबसे बड़ी मेहरबानी
यही हमारी अपनी है
जब जिंदगी अपनी है
तब उसकी हर चीज हमारी अपनी है
वह खुशी हो या गम
सब हमारी अपनी है
किसी को अधिकार नहीं
जिंदगी में दखलअंदाजी करने का
जैसा जीना होगा हम जी लेंगे
वह हमारी मर्जी
मुसीबत हो या बीमारी
सबमें है मुस्कान जरूरी
जज्बा नहीं होने देना है कम
नहीं है ये हमेशा के मेहमान
आज आए है
कल चले जाएंगे
कुछ सिखा कर जाएंगे
कुछ समझा कर जाएंगे
असलियत से सामना करवा कर जाएंगे
कौन अपना कौन पराया
इसकी पहचान कराकर जाएंगे
जीने के लिए यह भी तो जरूरी
माटी के पुतले तो नहीं
हाड मांस के इंसान है हम
दिल और दिमाग दोनों है
वह सोचने और विचारने के लिए
शरीर काम करने के लिए
ऑखे देखने के लिए
भले बुरे का भेद समझने के लिए
इनको हमेशा खुला रखना है
वाणी तो है सबसे बड़ा हथियार
यह बहुत संभल कर चलाना है
मन है सोने जैसा
उसमें बुराईयों को नहीं बैठाना है
अपनी जिंदगी को शान से जीना है
नहीं किसी के सामने झुकना है
जो भी है
जैसी भी है
यही हमारी अपनी है
धरती माँ अपने बच्चों को भूखा नहीं रखेंगी
आज सब मजबूर
फिर भी है किसान मजबूत
उसे इतना तो भरोसा है स्वयं पर
भूखे नहीं मरेगे
धरती माता इतना तो दे ही देगी
पेट तो भर ही देगी
नून रोटी मिल ही जाएंगी
किसी तरह परिवार का गुजर बसर हो ही जाएंगा
सब वापस अपने उसी जमी पर जा रहे हैं
विश्वास है गुजारा कर ही लेंगे
शहर में तो नौकरी नहीं
तब कुछ भी नहीं
रोज कमाओ
रोज खाओ
बीमार पड गए तो पगार कट जाएंगी
गाँव में तो यह बात नहीं है
अपने मन के राजा
फसल बो दी तब अन्न उपजेगा
सब्जी लगा दी तब बेल पर असंख्य लद जाएंगी
महीनों तक खुद खाएं औरों को भी खिलाएं
बगिया पूर्वजों ने लगाया
फल आज तक मिल रहे हैं
गाय नहीं बकरी ही पाल लेंगे
दूध का इंतजाम तो हो ही जाएंगा
शहर में काम करते हैं तब रूपया मिलता है
उसी से अनाज खरीदते हैं
गाँव में भी काम करते हैं
वहाँ पैसा तो नहीं पर अनाज मिलता है
धरती माता किसी तरह पेट जरूर भर देती है
अपनी संतान को भूखा नहीं रखती है
पिज्जा - बर्गर न मिले
लिट्टी-चोखा तो जरूर मिलेगा
इसी विश्वास के साथ फिर वही जा रहे हैं
जहाँ से आए थे
धरती माता अपने बच्चों को भूखा नहीं रखेंगी
कुछ न कुछ इंतजाम तो कर ही देगी
Tuesday, 26 May 2020
सोनू सर शुक्रिया
सोनू का दिल सोने जैसा
सहायक बना है मजदूरों का
उनके घर तक पहुंचाने की है ठानी
बस से शुरू किया सफर उनका
हमदर्द और मसीहा बनकर आए हैं
जो काम हुक्मरानो को करना था
वह यह मजबूरो का भाई और बेटा कर रहा है
नेता अभिनय कर रहे हैं
अभिनेता फर्ज निभा रहा है इंसानियत का
सूद चढा दिया अपने एहसानों का
हम मजदूरो पर सोनू भैया
नेता बने मुकदर्शक
तुम बने हमारे हमदर्द
हर उस शख्स की दुआ तुम्हें लगे भैया
हर माँ का आशीर्वाद
बेबसी को दिया सहानुभूति का मरहम
वह भी उनके घर पहुँचाकर
यह सूद तो ऐसा है
जो कभी नहीं उतार सकते
आपके ये मजदूर भाई
शुक्रिया सर
बस सरकार के भरोसे है
पैर में छाले
पेट में भूख
बेघर
चल रहे
चलते जा रहे
कोई दया कर दे रहा
कुछ खाने को दे दे रहा
कोई पानी और बिस्कुट
कोई पुलाव और दाल चावल
कोई रूपया
कोई चप्पल
आज हम मोहताज हो गए
दर दर के भिखारी हो गए
कभी हम भी खाते कमाते थे
अपनी मेहनत के बल पर जीते थे
हाथ फैलाना हमें गंवारा नहीं
भिखारी और साधु फकीर को खाली हाथ नहीं लौटाते थे
पेट भर खाते थे
पूरे परिवार को खिलाते थे
अपनों पर कोई कष्ट न आने देते थे
आज इतनी लाचारी
सब देख रहे
कुछ कर न पा रहे
बस सरकार के भरोसे हैं
यही तो संसार है
हवा भी चल रही है
फूल भी मुस्करा रहे हैं
सुबह का प्रस्थान
संझा का आगमन
गर्मी चरम सीमा पर
तपती दोपहरी में
अब राहत है कुछ
यह इंतजार हमेशा रहता है
दिन में रात का
रात में सुबह का
ठंडी में गर्मी का
गर्मी में बरखा का
जो है उससे अलग
जीवन में भी इंतजार
यह इंतजार कभी खत्म नहीं होता
आज यह है
तो कल वह चाहिए
आज और कल
वर्तमान और भविष्य
सब अपने अपने हिसाब से
जिसके हिस्से में जो आ जाए
ऐसा ही चलता रहता है
इसी को तो संसार कहते हैं
आज मेरा भारत तो कहीं नहीं दिखता
हम सब एक हैं
यह हम हमेशा से कहते आए हैं
मानते भी आए हैं
लेकिन आज लगता है
यह संपूर्ण सच नहीं है
आज जब आपदा से सारा विश्व जूझ रहा है
तब हमारे यहाँ तो प्रांतवाद चल रहा है
जम कर राजनीति हो रही है
सत्ता की उठा पटक हो रही है
एक दूसरे पर निशाना साधा जा रहा है
देशवासियों की समस्या तो दरकिनार
सब अपना अपना जुगाड़ लगा रहे
जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे
अपनी असफलता का ठीकरा दूसरे पर
अवसरवादिता का बोलबाला
किसका शासन
किसकी सरकार
कौन जिम्मेदार
यह तो सामान्य जनता की समझ से बाहर
न उनके पास रोजी है
न रोटी है
असहाय और बेबसी का आलम है
सब कोई पीस रहा है
अनेकता में एकता कहीं नहीं
एकता का बंटवारा हो रहा है
सब कुछ बंटाधार हो रहा है
कभी दोष इस पर
कभी दोष उस पर
मीडिया भी क्या कर रहा है
किसकी पैरवी कर रहा है
यह तो वही जाने
नेता तो भूले ही हैं
मीडिया भी भूली है
सरकार तो चुप है
कब जुबान खुलेंगी
कहा नहीं जा सकता
कोई लडाने का मौका तलाश कर रही होगी
आज एकता तो दूर खडी सिसक रही है
प्रांतीयता सर उठा रही है
कौन मेरा नेता
कौन तुम्हारा
सब खेमों में बंटे हुए
विपदा की घड़ी है
एकता गायब है
हमारे देश में संशाधन नहीं
विदेश में डंका
प्रांतो के बीच सीमा रेखा
इसमें मेरा भारत तो कहीं नहीं दिखता