लगा जरा पीछे मुड़कर झांक लू
अचानक मन में द्वंद्व उठा
लगा शांत झील में कंकड़ पड़ गया हो
हर बार हारी मैं
हर बार जीती मैं
हर बार गिरी मैं
हर बार उठी मैं
वह मैं ही तो थी
जो गिरती - पड़ती संभलती रही
कभी मायूस हुई
कभी उदास हुई
कभी जी भर मुस्कराई
कभी खिलखिलाती हंसी
बस रुकी नहीं चलती रही
आई हर बाधा को पार करती रही
आज मुड़कर पीछे देखा
विश्वास नहीं हुआ
वह मैं ही थी क्या
कितना कुछ बदल गया
वक्त के सांचे में सब ढल गया
उस मोड़ पर आ खड़ी हूँ
जहाँ कुछ करने से रही
हम ही नहीं इस कतार में और भी है शामिल
यह सिलसिला है जिंदगी का
तभी तो गिला नहीं किसी बात का
जो समझा वह किया
परिणाम भी तो मुझे ही मिला
कामयाबी पर पीठ थपथपाई
नाकामियों पर ऑसू बहाया
हर तूफान का सामना किया
अब और तो कुछ बाकी नहीं
यह भी सही और वह भी सही