Tuesday 31 October 2017

मैं जीना चाहती हूँ

मुझे मरने से डर लगता है
मैं जीना चाहती हूं
हंसना- खिलखिलाना चाहती हूँ
अपनों के साथ रहना चाहती हूँ
मौज- मजा और एशो - आराम चाहती हूँ
पर यह होगा कैसे???
हर चीज की कीमत चुकानी पडती है
जीना है तो अनुशासन का पालन करना है
खाने के लिए नहीं जीने के लिए खाना है
व्यायाम और कसरत करना है
साफ - सफाई का ध्यान रखना है
समय का पाबंद रहना है
तनाव और अशांति से दूर रहना है
प्रेम और स्नेह बॉटना है
संतोष को परम धन समझना है
लोभ ,मोह ,क्रोध को त्यागना है
गृहस्थी में रहकर संन्यासी बनना है
क्षमा को अस्र बनाना है
जीवन को सरल ,विचार को महान
ईश्वर पर विश्वास और अटूट आस्था
तब जीवन सार्थक बन जाएगा
डर नहीं श्रद्धा रखना है
नजरियॉ बदलना है
तब देखिए जीवन कितना आंनददायी हो जाएगा
अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना सीखिए
तो स्वर्ग भी यही महसूस होगा

दीपावली

दीपावली है दीपों का त्योहार
जगमग - जगमग करते दीयों का त्योहार
रंगबिरंगी रंगोली और तोरण - बंदनवार
खुशियॉ और मेलमिलाप
पकवान और मिष्ठान की भरमार
साफ- सफाई और रंगरोगन
नए परदे और चद्दरे
सब कुछ नया - नया
लक्षमी का आगमन
नव वर्ष का जल्लोष
नए कपडे पहन कर एक - दूसरे को शुभकामना
पटाखे और फुलझडियॉ
आतिशबाजियॉ और रोशनाई भी
आई दीवाली और गई दीवाली
जाते - जाते प्रश्न भी छोड गई
केवल कुछ दिनों या पूरे साल भर
मन मिलेगे ,प्रेम के दिये जलेंगे ??
स्वच्छता रखी जाएगी
लक्षमी का सम्मान होगा
नये विचारों का आगमन होगा
नया विकास तन - मन का
सेहत का रखरखाव
परदे के साथ मन पर पडे भेद भी हटेगे
रोशनी प्रेम की जगमगाएगी
या फिर दीए जलाकर कूडे  में फेक दिया
वैसे ही सब भूल जाएगे
अगली दीवाली कब आएगी
इसका इंतजार करेंगे

जल बिन मछली

तालाब में मछलियॉ तैर रही थी
कुछ झुंड में , कुछ यहॉ - वहॉ
पर तैरना जारी था बिना रूके
कुछ की जान भी जोखिम में थी
छोटी के पीछे बडी पडी थी
पर विडंबना यह कि बाहर नहीं आ सकती
बाहर निकलते ही मर जाएगी
तडपकर बिन पानी
पानी ही तो जीवन है उनका
वैसे ही परिवार होता है
कोई कैसा भी हो पर उसे छोड नहीं सकते
अपने ही दुख देते है पर सुख भी तो उनसे ही
बच्चे हमारा मुंह देख ऊब जाय
पर उनको देख कर ही हम जीते हैं
ईश्वर के यहॉ भी सुकुन और चैन न मिलेगा
संतान तो संतान होती है
कैसी भी हो पर ममता तो उससे ही है
सारे सुख हो पर वह पास न हो तो बेकार है
वह तो अपना जीवन जीती है
पर हम तो उसका जीवन जीते हैं
मॉ - बाप बनते ही स्वयं को कहीं छोड देते हैं
यह हर घर और परिवार की बात है
हर पीढी की बात है
हम तो उस मछली की तरह है
जो बाहर नहीं आ सकती
पानी बिना नहीं रह सकती
मॉ - बाप तडपते हैं
बच्चे अपनी जिंदगी जीते हैं
शायद उन्हें यह पता नहीं कि वह भी
इसी चक्रव्यूह में फंस रहे हैं
यह गति तो उनकी भी होनी है
हॉ इस समय दिखाई नहीं पडता
समय तो करवट बदलता ही है
आज हमारी बारी तो कल तुम्हारी

Sunday 8 October 2017

याद आते हैं वह दिन बचपन के

आज सब कुछ है पर वह मौज - मजा नहीं
अपनी ही पाठशाला में गई थी
बच्ची की टिचर ने बुलाया था
कुछ बच्चों ने आपस में झगडा किया था
एक पुरानी आलमारी को देख अपना दिन याद आ गया
वहॉ लॉस्ट प्रापर्टी हुआ करती थी
जब भी कुछ खोता था तो आकर उसमें देखते थे
हमारा छुटा हुआ या खोया हुआ सामान होता था
पहचान बताकर ले जाते थे
बचपन की उत्सुकता अभी तक थी
अलमारी का दरवाजा भिडका हुआ था
थोडा सा ठेला तो दिखा
वॉटर बॉटल , खाने के डिब्बे ,छतरी ,कंपास बॉक्स
और न जाने क्या - क्या ???
हम तो इरेजर में भी नाम और निशान लगा कर रखते थे
हर सामान पर क्योंकि गुम हुआ तो फिर घर पर डाट
आज के जैसे रंगबिरंगे डब्बे , बॉटल , पेंसिल बॉक्स
नहीं बल्कि एक या दो पेंसिल
जब तक कि वह खत्म न हो जाय
स्याही की बॉटल छुपाकर रखना
एक - एक पन्ने को संभालना ताकि बुक- बांइडिग कराकर रफ बुक के लिए इस्तेमाल करना
केंलैडर और अखबार के कवर
होली के पहले दिन इंक पेन से खेलना
झुंड के झुंड में पैदल ही पहुंचना
बडे स्कूल की जरूरत नहीं
घर के पास ही बी एम सी का स्कूल हो तब भी ठीक
खाने की छुट्टी में पांच पैसे में जो भी मिले
न मंहगी चीजे थी फिर भी सुकुन था
आज बच्चे के पास सब चीजें उपलब्ध है
एक की जगह चार- चार
पर वह लगाव नहीं जो हमारे इकलौते चीज से था
फिर चाहे वह लंच बॉक्स हो या वॉटर बॉटल
कलर बॉक्स हो या कम्पास
एक चॉक पाकर भी लगता था जन्नत हासिल हो गयी
दूसरे दिन सफेद जूते पर घिस डालते थे
आज दिन अच्छे हैं
सब उपलब्ध है पर फिर भी संतोष नहीं
उसके पास है तो मेरे पास क्यों नहीं??
यह प्रवृत्ति घातक भी है
होड कही गलत मार्ग पर न ले जाकर खडा कर दे
महत्तव कैसे पता चलेगा ???
डाट - डपट नहीं , दंड नहीं , हर इच्छा पूरी
हमारे तो वह दिन थे कि पहाडा न आने पर मार पडेगी
रटते रहते थे
कविताएं कंठस्थ हो जाती थी
सामान की हिफाजत करना आता था
मेहनत और लगन की आदत लगती थी
वैमनस्य की भावना नहीं थी
लडते थे झगडते थे और एक होते थे
घर तक तो बात ही नहीं पहुंचती थी
पर जमाना बदल गया है
हम भी कभी बच्चे थे को छोडकर
वर्तमान में आ गई
पता नहीं क्या मामला हो
बच्चे संवेदनशील हो गए है
मन पर असर हुआ तो न जाने क्या कर बैठे??
सब डरे हुए हैं
मॉ - बाप ,परिवार ,शिक्षक
हम पर तो पडोसियों का भी हक होता था
वह भी डाटते थे
आज तो कोई देखता भी नहीं
पर यह सही है क्या  ?????
इतना निर्लिप्त हो कैसे काम चलेगा
तभी तो घटना घटती है और लोग देखते रहते हैं
कौन लफडे - झंझट में पडेगा
पुलिस और कानून के पचडे में
पडोसी से क्या घर के सदस्यों पर से विश्वास हट रहा है
नई आनेवाली पीढी डर और खौफ के साये में
अति सुरक्षा के घेरे में जी रही है
हम कैसा समाज और भविष्य उनको दे रहे हैं
अकेलापन ,अविश्वास , डर ,आंतक ,अक्रामक
प्यार ,दया ,मैत्री , सम्मान , संतोष ,धीरज का अभाव
यह बहुत खतरनाक है
स्वयं को और समाज को बदलना पडेगा
अपनी नई पौध को निर्माण करने में