Sunday 31 January 2021

मैं कविता लिखती हूँ

मैं कविता लिखती हूँ
सोच कर नहीं
अपने मन की बात लिखती हूँ
भावनाओं को शब्दों में उडेलती हूँ
कोई पूछता है
क्या फायदा
फालतू का सर खफाना
मुझे आनंद आता है
मन को सुकून मिलता है
एक सुखद अनुभूति होती है
दुख और उदासी को शब्दों में उडेलकर
एक अंजानी सी खुशी मिलती है
अपनी ही नहीं
दूसरों की भी व्यथा से लोगों को रूबरू कराती हूँ
मन ही मन बातें करती हूँ
तब जाकर कविता प्रस्फुटित होती है
अपने आप कलम चलती है
बिना सोचे
अपने आप सब लिखती जाती है
जब वह तैयार हो जाती है
फिर से पढती हूँ
तब लगता है
अरे वाह
क्या खूब लिखा है
अपनी पीठ आप थपथपाती हूँ
स्वयं की लेखनी पर इतराती हूँ
हाँ सही बात है
मैं कविता लिखती हूँ

मेरी अपनी कहानी

आज उसने सब हासिल कर लिया है
नाम , शोहरत , घर - संपत्ति
सब अपनी मेहनत के बदौलत
याद आता है वह मंजर
ससुराल की प्रथम रात को महिलाओं के झुंड में बिठा दिया
गाना गाने को कहा
ढोलक बजाने को कहा
नाचने को कहा गया
इन सब से तो उसका दूर से भी रिश्ता नहीं था
वह नचनिया और गायिका थोड़े ही थी
फुसफुसाकर सब कहने लगी
कुछ आता नहीं है
फिर सुबह पूछा गया
सीना - कढाई करना आता है क्या
बडी नन्द तो कुछ सीने को भी दे गई
मेरे गुणो का पता करना था
साधारण सिलाई बखिया - तुरपाई आती थी
कढाई और कशीदाकारी नहीं
अब पेटीकोट और ब्लाउज सीना मेरी फितरत में नहीं
दर्जी तो थी नहीं
न मैंने होमसांइस में डिग्री ली थी
सुई - धागा से ज्यादा कलम और किताब प्यारी थी
फिर कहा गया
कुछ आता नहीं है
ऐसी पढाई से क्या फायदा
अब आई पाक कला की बारी
उसका तो यह हाल
घर में नहीं दाने , बूढ़ा चली भुनाने
सामग्री का अभाव
न तेल न मसाला
न लौना न लकड़ी
ख्वाब है बडे बडे
खाना है मालपुआ और खीर
बैठा दिया चूल्हे पर
अब मैं रसोइया तो थी नहीं
जो स्वादिष्ट सुस्वादु भोजन बनाती
सबकी अपेक्षा पर खरी उतरती
बेसहूर हैं
कुछ काम की नहीं है
आए दिन बुढियो की महफिल जमती
फिर जम कर चर्चा होती
हंसी और ठट्ठा  उडाया जाता
मैं मुकदर्शक बनी रहती
लगता बेकार की डिग्री ली है
बेकार की पढाई की है
बुढ़िया आजी की आवाज कानों में गूंजती
का होई खांची भर पढ - लिखकर
चूल्हा ही फूंके के बा
दिमाग सब सुन सुनकर चकरा जाता था
अपने को नगण्य समझने लगी थी
सब सिद्ध करने में लगे थे
मैं किसी लायक नहीं
ऊपर से मेरा रूप रंग
न गोरी चिट्टी
न पतली लंबी
सुंदरता के मायनों पर खरी नहीं उतरती थी
इन सबके सामने पढाई बेकार थी
कोई उपाय न देख
उस पढाई को ही हथियार बनाया
अपनी क्षमता का लोहा मनवाया
स्वयं खडी हुईं पैरों पर
स्वयं को सिद्ध किया
आज किसी की बात याद आती है
  कर बहियां बल आपनी
       छोड पराई आस

आज की सुबह

आज की सुबह अलसायी सी
उठने का मन ही नहीं कर रहा था
रोज रोज वही वही
तंग आ गई
मैं इन रोजमर्रा के कामों से
आज नहीं उठूँगी
कुछ काम नहीं करूंगी
जिसको जो करना हो करें
मेरी बला से
सबका ठेका मैंने ही ले रखा है
नहीं उठी
चुपचाप चादर ओढ पडी रही
सब आ आकर झांक रहे
आज मम्मी की तबियत ठीक नहीं है
कोई आवाज नहीं
सारे घर में सन्नाटा
सब चुपचाप उठ गए
अपना काम कर रहें
न चाय - नाश्ता पर ना नुकुर
न उठाने की झंझट
न टोकम टाकी
आखिर हार गई
यह सन्नाटा जरा भी नहीं भाया
चादर झटक बिस्तर से उतरी
साडी कमर पर खोंस
भोजन की तैयारियों में लग गई
आज तो रविवार है
छुट्टी का दिन
सब घर पर है
सबकी पसंद का खाना बनाऊगी
जी भर कर खिलाऊगी
यह आराम वाराम छोड़ो
इस सन्नाटे को गोली मारों

दर्द की अदा

दर्द दिल में हो
देह में हो
दर्द तो दर्द ही होता है
हमेशा दुखदायी ही होता है
कोई नहीं चाहता
यह पास आए
तब भी यह आ ही जाता है
चोरी चोरी चुपके चुपके
इसकी भी अपनी एक अदा है
यह वार करता है
अपनी गिरफ्त में ले लेता है
फिर धीरे-धीरे अपना सा बन जाता है
साथ ही रह जाता है
और कोई फर्क नहीं पड़ता
जीने की आदत बन जाती है
सहने की आदत बन जाती है
तब दर्द दर्द नहीं रहता
जीवन का हिस्सा बन जाता है

Saturday 30 January 2021

प्रेम कैसा हो ??

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
तभी तो तुम्हारी हर बात मानता हूँ
गलत - सही
जायज - नाजायज
क्योंकि प्रेम में ऑखों पर पट्टी बंधी होती है
प्रेमी और प्रेमिका का दोष भी गुण दिखाई देता है
जिससे प्रेम होता है
वह सर्वोपरि होता है
उसकी इच्छा का सम्मान
यह सब एकतरफा न हो
प्रेम दोनों तरफ से हो
ऐसा न हो कि बोझ बनने लगें
प्रेम प्रतिदान भी तो चाहता है
जब दोनों ही में प्रेम हो
तब जिंदगी खुशगवार
दोनों ही एक दूसरे की कद्र करेंगे
मान रखेंगे
वह भी थोपा हुआ नहीं
अपनी इच्छानुसार

बात वही खत्म हो गई

कल जो था वैसा आज नहीं
वह बातें जो कल तक अच्छी लगती थी
आज न जाने क्यों चुभती है
मन को अंदर तक टीसती है
माना कि बात सही है
फिर भी कब तक सुना जाए
सुनते सुनते थक गए
वही वही सुनते सुनते पक गए
हर चीज की एक सीमा होती है
बातों की भी तो हो
जब बात बात न लगे
बोझ लगने लगें
तब उन बातों को छोड़कर आगे बढ जाना है
कब तक पुरानी केंचुली में लिपटा रहेगा
कभी न कभी तो उतार फेंकना है
नहीं तो उसमें से संडाध आने लगेंगी
बातों को भी छोड देना है
जो हुआ सो हुआ
जो घटा सो घटा
घटना घट गई
बात वही खत्म हो गई

Friday 29 January 2021

पुलिस की भूमिका

पुलिस लाचार खडी थी
पुलिस बेबस थी
पुलिस मुकदर्शक बनी थी
पुलिस मार खा रही थी
अगर मारती तब भी
न मारा तब भी
दोषारोपण पुलिस पर ही
क्या करती
खून खराबा होने देती
गोली चलाती
न जाने कितनी जाने जाती
उसके बाद का मंजर तो और खौफनाक होता
धीरज से काम लिया
अन्नदाता का अपमान नहीं किया
वे रोष मे थे तब भी अपने देश के हैं
यह वह जानती थी
इसलिए संयम से काम ले रही थी
जालियांवाला बाग कांड नहीं दोहराना चाहती थी
वह अंग्रेजों की पुलिस थी यह स्वतंत्र भारत की पुलिस है
कभी-कभी शांति के हथियार का भी प्रयोग करना पडता है
वही हमारी पुलिस ने किया
अब उसकी आलोचना हो या प्रत्यालोचना
जो किया समय की नजाकत को देखते हुए किया
लाल किले तक पहुँचे कैसे ?
जाने क्यों दिया गया
पुलिस बल और पब्लिक बल
यह एक समान नहीं होते
जब जनता सडक पर उतरती है तब समझदारी ही पर्याप्त है
आज स्वयं अस्पताल के बेड पर पडी है
घायल हैं
फिर भी कोई बात नहीं
ये घाव तो भर जाएंगे
अगर गोली चलती तो
तब क्या मंजर होता
गणतंत्र दिवस पर अपने ही लोगों पर प्रहार
यह उसे उचित नहीं लगा
मामला थोड़े में निपट गया
किसान भाईयों को भी अपनी गलती समझ आ रही है
वे भी यह मान रहे हैं
जो हुआ वह तो अच्छा नहीं हुआ
पुलिस की भूमिका काबिले-तारीफ है

गलती करना

गलती करना
गलती होना
गलती मानना
यह तो साधारण बात ठहरी
गलती होने पर भी सही सिद्ध करना
यह बात गले नहीं उतरती
हम ही सही
जो बोला
जो किया
जो सोचा
सब सही
हम तो गलत हो ही नहीं सकते
गलत कर ही नहीं सकते
कुछ लोग इसी गलतफहमी में रहते हैं
अपने को न जाने क्या समझते हैं
दूसरों में नुक्स निकालकर इतराते हैं
अपने गिरेबान में तो झांकते नहीं
दूसरों पर बराबर नजर रखते हैं
अपने को ईश्वर के समकक्ष समझते हैं
इंसान है तो गलती तो होगी ही
वह सोच समझ के हो
अंजाने में हो
हो ही जाती है
पर ये माटी के पुतले इस बात को नहीं मानते हैं
बस अपने को ही सही मानते हैं

तुम पुरूष हो शक्तिमान नहीं

मैं धुरी हूँ समाज की
समानता का अधिकार प्राप्त
वह भी कानून की किताब में
सच में मुझे बराबरी का दर्जा मिला
या उसके नाम पर ठगा गया
पहले घर ही संभालती थी
अब घर और दफ्तर दोनों की जिम्मेदारी
फिर भी मेरे कंधे नाजुक है
मैं ज्यादा भार नहीं उठा सकती
यह धारणा है जनमानस की
आज ही नहीं सदियों से यह मैं करते आई हूँ
घर और बाहर में तालमेल बिठाती आई हूँ
उस किसान की बीबी हूँ
जो उसके खाने से लेकर फसलों तक को सहेज कर रखती हूँ
उस मछुआरे की बीबी हूँ जो मछली साफ करने से लेकर बाजार में बेचने तक में सहयोग करती हूँ
उस मजदूर की बीबी हूँ जिसके बच्चे को पीछे बांध ईटों को ढोती हूँ
उस माली की बीबी हूँ जो फूलों को तोड़ने से लेकर उसकी माला पिरोने तक का काम करती हूँ
झाडू लगाने से लेकर दूध दुहने तक का काम
ऐसे न जाने कितने अनगिनत
तब भी मेरा मोल समझ न आया
मर्द समझता रहा
मैं ही सब संभालता हूँ
परिवार का भरण पोषण करता हूँ
मैं नगण्य हो गई
आज मैं दमखम के साथ निकली हूँ
पहले कभी जताया नहीं
आज जता रही हूँ
मैं तुम्हारे बराबर हूँ
मेरे बिना तुम बिल्कुल अधूरे हो
अर्द्धागिनी हूँ
यह सच है
इसे पूर्ण मन से स्वीकार करों
तुम्हारे भी कंधे इतने मजबूत नहीं
जो सारा बोझ अकेले उठा सको
मेरी महत्ता को स्वीकार करों
माना तुम पुरूष हो
पर शक्तिमान नहीं

Thursday 28 January 2021

भीड़तंत्र की आड में षडयंत्र

ऐसा तो नहीं जो दिखाई दे रहा है
वह सच न हो
ऑखों का धोखा हो
षड्यंत्र हो
नहीं तो जो किसान इतने दिनों से शांति पूर्ण आंदोलन कर रहे थे
अचानक उग्र कैसे हो गए
ऐसा तो नहीं उन्हें बदनाम करने की साजिश
लोगो की सहानुभूति खत्म
देश का सवाल है
उस पर ऑच न आएं यह हर भारतीय की इच्छा
गणतंत्र दिवस पर ऐसा बर्ताव जनमानस बर्दाश्त नहीं कर सकता
भारतीयों की देशभक्ति सर्वविदित है
आज अन्नदाता के प्रति रोष है
वह जान दे देता है लेता नहीं है
यहाँ पुलिस पर प्रहार
जान माल पर उतारू
असामाजिक तत्वों का तो कहीं यह काम नहीं
किसानों को बदनाम करने की साजिश
कहीं इसमें कुटिल राजनीति तो नहीं
लाल किले पर उपद्रव
झंडे का भी अपमान
जवानों पर हमला
भाला , डंडा , पिस्तौल , लाठी
यह सब साथ में हथियार
सुनियोजित था क्या ??
इसका लाभ किसे ?
किसानों को तो कदापि नहीं
उनकी तो साख मिट्टी में मिली
सब जांच का विषय है
भीड़तंत्र की आड में षडयंत्र
मीडिया की भूमिका तो किसी से छिपी नहीं है
डिबेट देख लो हर चैनल पर
पक्षपात एकदम नजर आ जाता है
वह तटस्थ तो बिल्कुल नहीं
प्रजातंत्र के लिए यह बडा घातक है

नये जोश नये सपने

मैं रोज उगते हुए सूरज को देखती हूँ
ख्याल आता है
कितने आहिस्ता आहिस्ता से लालिमा बिखेरते
पूरे आसमान पर छा जाता है
सुबह सुबह सौम्य कोमल
दोपहर में प्रखर ताप
संध्या समय फिर आहिस्ता आहिस्ता अस्त होता जाता है
सुबह बालपन
दोपहर युवावस्था
संध्या प्रौढ़ता से वृद्धत्व की ओर जाते जाते अंत में बिदा
ओझल हो जाना
प्रकृति में ही जीवन सार समाया है
संदेश देता जाता है
प्रकाश बनो
स्थायी यहाँ कुछ नहीं
आज मैं
कल तुम
परसों कोई और
यह आना - जाना लगा रहेंगा
हर सुबह की शाम
हर दिन की रात
हर दिन नया
नव प्रभात
नयी आशा
नया गुंजार
सूरज का आगमन भी नवीन
कल तो गया
आज है साथ
उसको पहचानो
नये जोश नये सपने
साकार करों

ममता भी डरी हुई

मार खाना
कम से कम दिन में एक बार तो अवश्य ही
मार खाओ और मन पर मत लगाओ
यह हमारे जीवन का फंडा होता था
कोई भरे मैदान में पिता द्वारा जूते से पीटा जाना
कोई मोहल्ले वालों के सामने
कोई रिश्तेदार के सामने
सम्मान और इज्जत
यह बच्चों के शब्दकोश में नहीं
परिवार में आपसी झगड़ा
पति-पत्नी के बीच झगड़ा
तब दे दना-दन
सब बच्चों के ऊपर ही उतरता था
थोड़ी देर में सब भूल जाता था
पाठशाला की तो बात ही निराली
हर दूसरे दिन मुर्गा
बेंच पर खडा होना
कक्षा के बाहर
थप्पड़ और डस्टर का वार
नालायक और बदतमीज़ से नवाजना
आज तो बात ही कुछ और है
बच्चों से डर लगता है
युवाओं से डर लगता है
यहाँ तक कि बुजुर्गों से भी डर लगता है
कौन सी बात लग जाएं
कौन सा कदम उठा ले
हमारी नींव ही मजबूत थी
मार खाना
डाट खाना
यह जिंदगी का अहम हिस्सा थे
क्योंकि पता था शायद लोगों को
जिंदगी में न जाने क्या क्या करना पड़ेगा
किस तरह की ठोकरे लगेंगी
बचपन से ही ट्रेन्ड
तभी तो आत्महत्या के केस कम थे
अभिभावकों को डर नहीं था
आज तो डर का माहौल बना है
प्यार में भी डर
ममता भी डरी हुई

Wednesday 27 January 2021

अलग शख्सियत

हर कोई हीरो है
अपने जीवन का हीरो
जरा देखो तो ध्यान से
अपने जीवन की किताब के पन्नों को पलटो
हर पन्ना कुछ कहता होगा
तुमको स्वयं से परिचित कराता होगा
तुमको स्वयं ही महसूस होगा
यह हमीं हैं क्या ?
अपने पर ही नाज होगा
खंगालिए तो सही
हर घटना को याद करें
अपना योगदान
अपनी प्रतिभा
अपने को तुच्छ समझना यह कहाँ की बुद्धिमानी ??
हर व्यक्ति हीरों है
वह जो कर सकता है वह सब नहीं
जीवन नायाब है
वह भी यूनिक है
सबसे अलग सबसे निराला
सबके हाथ का अंगूठा अलग
वैसे ही सबका जीवन अलग
साम्य नहीं विपरीत
यही तो खासियत है
आप अपने आप में अलग शख्सियत हैं

तुम वहीं हमारे किसान हो

कुछ तो शर्म करों
कुछ तो विचार करों
जो कुछ किया तुमने
अपने ही नाम को शर्मसार किया
हल वाले हाथ में हथियार
यह कैसे सोच लिया
सब तुमको माफ करेंगे
तुम्हारे साथ रहेंगे
तुम तो अन्नदाता हो
जीवनदाता हो
ट्रेक्टर चलाते चलाते टेररिस्ट जैसे कब बन गए
धीरज वाला उपद्रवी बन गया
निर्माणकारी विनाशकारी बन गया
झंडे का भी अपमान
गणतंत्र दिवस पर अपने ही गणों ने
यह क्या कर दिया
कानून से सर्वोपरि हो गए
अधिकार की मांग करते करते
अपना कर्तव्य भूल गएँ
यह तो किसान को शोभा नहीं देता
आदरणीय से निंदनीय बन गएँ
विश्वास नहीं होता
तुम वहीं हमारे किसान हो

वे किसान ही थे ???

यह जो हुआ वह तो ठीक नहीं हुआ
हमारे किसान ऐसे कैसे हो गए
हल चलाने वाले के हाथ में हथियार
शोभा नहीं देता
पेट भरने वाला जीवन दान देता है
जीवन लेता नहीं है
जय जवान जय किसान
यही हमारे गौरव हैं
तिरंगा  सबकी आन बान शान
उसकी जगह कोई और नहीं ले सकता
उसका अपमान सबका अपमान
तोड़फोड़ , आगजनी , उपद्रव
यह किसान का काम नहीं
मिट्टी को सोना बनाना
निर्माण करता
विनाश कर्ता नहीं
ट्रेक्टरधारी टेररिस्ट बन गया
इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी
अपने ही ऊपर कालिख पोत ली
अब सम्मान नहीं निंदा के पात्र
आदरणीय से निंदनीय बनना
पूरा विश्व देख रहा था
मीडिया के माध्यम से
नहीं तो विश्वास नहीं होता
कानून सर्वोपरि है
उससे ऊपर कोई नहीं
धीरज रखने वाला
धीरज कैसे खो बैठा
मौसम की मार सहता है
ऑधी तूफान अकाल और बाढ का सामना करता है
प्रकृति के आगे सर झुकाता है
संदेह होता है
वाकई जो हुआ दिल्ली में
लाल किले के प्रांगण में
वे किसान ही थे ??

Tuesday 26 January 2021

Happy Republic Day

यह हमारा भारत है
यह तुम्हारा भारत है
यह अपना भारत है
जान से प्यारा भारत है
हमें इस पर गर्व है
यह हमारा अभिमान है
हमेशा रहें यही हम
यह घर हमें बहुत प्यारा है
कोई कैसा भी हो
कितना भी बडा हो
अपना तो अपना होता है
उस पर अधिकार होता है
स्वतंत्रता होती है
यहाँ की मिट्टी में स्वर्ग
यहाँ की नदियों में अमृत जल
यहाँ की आबो-हवा में सुगंध
यहाँ के लोगों से अपनापन
और क्या चाहिए हमें
जीने के लिए
खुश रहें और रहने दे
गणतंत्र दिवस शान से मनाए
अधिकार और कर्तव्य में समतोल बनाएं रखना
हर नागरिक की जिम्मेदारी
   Happy  Republic day

Monday 25 January 2021

हमारे किसान

आज तक हल और ट्रेक्टर
अब करेंगे परेड
गणतंत्र दिवस पर
हमारे किसान
पहली बार राजपथ पर
अब तक तो खेत खलिहान में
तब भी हल के साथ पैर उठते थे
कदम ताल करते थे
वहाँ मिट्टी थी
यहाँ पक्की सडक
यह तो उसके आदी हैं
किसान कुछ मांग रहा है
जो हमेशा दिया है
आज मजबूर हो सडक पर उतरा है
धरने प्रदर्शन कर रहा है
काम - धाम छोड़ कर बैठा है
ऐसी क्या बात है
अन्नदाता नाराज है
उनको मनाना सरकार की जिम्मेदारी है
उनका अन्न ही तो है
जिससे हमारा पेट भरता है
स्टील और कांक्रीट के जंगल में अन्न नहीं उगेगा
वह तो मिट्टी में ही उगेगा
और वह भी तब
जब खाद  - पानी पडेगा
समय समय पर इनकी भी सुध ले
परेशानी जानकर उनका हर निकालें
देश के कर्णधार हैं ये
ये हैं हमारे किसान

तपना तो पडता है

तपना तो पडता है
स्वर्ण हो या लौह
मिट्टी हो या पीतल
जो तपा नहीं वह गढा नहीं
सुन्दर आकृति
सुन्दर कलाकृति
बिना तपे
बिना ठुके - ठकठकाए
बिना पीटे हासिल नहीं होती
आग में तो उतरना पडेगा
हालात और वक्त से दो - चार होना पडेगा
स्वयं को निखारना पडेगा
हर चीज का तोड़ निकालना पडेगा
आग में तो उतरना ही पड़ेगा
तब जाकर जीवन में कुछ बन पाएंगा
पत्थर की मूर्ति तराश कर भगवान बनती है
इंसान को भी तराशना है
यह और कोई नहीं
स्वयं ही करना है
तभी तो सम्मानीय कहलाओगे
लोगों के बीच अपना स्थान बनाओगे

मेरा घर

मेरा घर ही मेरा स्वर्ग
उसमें ही सारा संसार समाया
मेरे पति मेरे ईश्वर
उन्हीं से दमकता मेरा चेहरा
मेरे बच्चे मेरी दुनिया
उनसे ही मन रहता गुलजार
इन सबका साथ
है ईश्वर का वरदान
भाग्य की कृपा अपरम्पार
यहीं मेरी धन दौलत
यहीं मेरी असली संपत्ति
इनसे ही जीवन मेरा
हरदम कृपा बनी रहें
सबका साथ बना रहें
मांगते हैं यह वरदान

Sunday 24 January 2021

हारना मेरी फितरत नहीं

हारना मेरी फितरत नहीं
चट्टानों को तोड़ने का माद्दा रखता हूँ
बाढ और तूफानों से टकराने का माद्दा रखता हूँ
सूखे में भी फूल खिलाने का माद्दा रखता हूँ
अटल और मजबूत इरादे रखता हूँ
डरता नहीं हौसला रखता हूँ
आज नहीं तो कल ही सही
जीत तो मेरे हिस्से में आएंगी
हार से घबराता नहीं
कदम पीछे खींचता नहीं
जो ठान लिया
वह तो करके ही छोड़ता हूँ
जिंदगी से हर पल जंग लडता हूँ
लडाई मेरी है
लडना भी मुझे ही है
नहीं किसी का सहारा
अपने बल पर  भरोसा करता हूँ
नहीं किसी पर निर्भर रहना
अपने दम पर कुलांचे भरता हूँ
जो करना है वह करता हूँ
हारना मेरी फितरत नहीं

महिला - पुरुष

अब मुझे डर नहीं लगता
किसी से बात करने में
उम्र जो हो गई है
साठ साल की
एक वक्त था
जब डर लगता था
किसी से बात करने में
अकेले रहना था
पति फोर्स वाले
न जाने कोई क्या सोच ले
निष्कर्ष निकाल ले
जिनका पति साथ में
वह कुछ भी पहने
किसी से भी बात करें
संदेह नहीं
पर अविवाहित महिला
परित्यक्ता
विधवा
विभक्त
यह नहीं रह सकते
समाज की सोच
कितना भी आधुनिक हो जाएं
बदलना इतना आसान नहीं
महिला - पुरुष की मित्रता
हमेशा संदेह के घेरे में
मन साफ
चरित्र साफ
फिर भी डर
कहीं न कहीं पुरूष हावी है
हर युग में रहा है
भेद भाव कम जरूर
खत्म नहीं हुआ है

आपका अपना

अगर शिकवा - शिकायत नहीं
नाराजगी नहीं
गुस्सा नहीं
वह संबंध महज औपचारिकता से भरे होते हैं
अपनों के सामने मन खुलता है
कुछ कहता है
अधिकार जताता है
जहाँ इसमें मौन का वास हो जाय
समझो सब खत्म
क्या लगता है यह मेरा
क्यों मैं इसको बोलूं
जो करना हो करें
मेरी बला से
उसकी अपनी जिंदगी हमारी अपनी
जहाँ यह भावना आ गई
वहाँ दिल से वह इंसान मिट गया
दिल - दिमाग से उतर गया
तब वह आपका अपना नहीं
न आप उसके रहें

शराबी पति की पत्नी की व्यथा

आज एक लाचार को देखा
शर्म से झुकी हुई नजर
अपराधबोध से ग्रस्त
वह जो उसने किया ही नहीं
उसका सुहाग उसका परमेश्वर
जिस पर नाज था
बडाई करते थकती नहीं
गुरुर मे रहती
नशे में धुत्त
मैले - कीचड़ मे लिपटा हुआ दरवाजे पर पडा था
कुछ अनाप - शनाप बक रहा था
मुहल्ले वाले तमाशबीन बने खडे थे
वह घसीट कर अंदर ले जा रही थी
उठाने पर न उठा पाई तब
नजरों को चुराए हुए
ऐसा तो आए दिन होता
पर पानी सर से ऊपर न जाता
घर में घुसते ही दरवाजा बंद कर लेती
मार खाती गाली सुनती
सुबह-सुबह मुस्कराती हुई दरवाजा खोलती
किसी ने कुछ बोल दिया तो उसकी खैर नहीं
छुपाती रहती
शराबी को देवता बताती रहती
उससे ही तो मान सम्मान जुड़ा रहता
पडोसियों का केंद्र बना रहता
एक एक गुणों का बखान करती
भले हो या न हो
पति को दुनिया का सबसे भला इंसान बताती
प्यार करने वाला बताती
आज वह कीचड़ से लथपथ द्वार पर पडा है
सारा पोल खोल बैठा है
असलियत सामने आ गई है
वह लजा गई है
शर्मशार हो गई है
सारी बनी बनाई इज्जत तार तार हो गई है
घसीट कर घर में ले जाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही
बेबस बच्चों को सहमा देख रही है
पडोसियों के व्यंग बाण झेल रही है
यह सब बर्दाश्त कर रही है
अपने पति परमेश्वर के कारण

Saturday 23 January 2021

डसना कोई इनसे सीखे

जख्म बहुत दिया है लोगों ने
दिया तो दिया
समय समय पर कुरेदते भी रहे हैं
तब भी हम हंसते रहे
टालते रहे
वे हमें टेक फार ग्रान्टेड लेते रहे
उनको मजा आ रहा था
जख्मो पर नमक छिड़कने में
नमक तो ठीक
नमक के साथ साथ मिर्च मसाला भी
क्या फितरत होती है लोगों की
वाणी मे मिठास और जहर साथ साथ
डस भी ले और पता न चलें

सुभाष चंद्र बोस

वह सुभाष था
भारत माता का लाल था
आजादी का दीवाना था
आजादी मुफ्त में नहीं मिलेंगी
तुम खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा
आजाद हिंद सेना की स्थापना
कूंच कर दिया आजादी का दीवाना
चला फौज ले जर्मनी से
वह नेता था ऐसा मतवाला
नहीं सफेद धोती कुर्ते वाला
खाकी रंग धारी सर पर टोपी न्यारी
थी यह सुभाष की पोशाक प्यारी
रह सकता था वह भी महलों में आराम से
कर सकता था अंग्रेजों की गुलामी
हर ऐश्वर्य - आराम को भोग सकता था
यह आजादी की कीमत पर स्वीकार नहीं था
आजादी तो मिली
सुभाष कहीं खो गए
भारत माता का सपूत लापता
हुआ पता नहीं क्या
अटकलें लगी तमाम
अब तक है असमंजस
क्या षड्यंत्र था या फिर और कुछ
सुभाष फिर वापस नहीं लौटे
आजादी तो मिल ही गई
सुभाष का नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित कर गई

गाली पर प्रतिबंध लगें

गलती किसी की
सजा किसी को
वैसे व्यक्ति को जिससे रूबरू भी नहीं हुआ
वह है या नहीं
यह भी नहीं जाना
सडक किनारे
बस - टैक्सी स्थल
ट्रैफिक में
या अन्य किसी जगह
गाली निकालना आम बात
बात- बात में गाली
माँ - बहनों पर
सुनकर शर्म से सर झुक जाता है
कुछ कह नहीं पाते
वे तो बेचारी वहाँ मौजूद भी नहीं
क्या हुआ इससे भी अंजान
तब भी मोहरा औरत को
कितनी गंदी मानसिकता
कब यह बदलेंगी
यह हमारे भारत में ही है
या कहीं और भी
जो भी हो
यह ठीक बिल्कुल नहीं है
सभ्यता के पायदान पर खडा मानव
वह भी गालियों से सराबोर
वाणी मे गाली हमेशा विद्यमान
इस पर भी कानून बनें
कुछ प्रतिबंध लगें

मैंने तो फैसला कर लिया

मैंने क्या खोया और क्या पाया
यह हिसाब रखना मुझे न आया
मैं नहीं बन पाया बनिया
घाटा और मुनाफा मे नापतौल नहीं कर पाया
मुझे तो संभालने थे रिश्ते
थोड़ा झुककर
थोड़ा सहकर
थोड़ा नजरअंदाज कर
यहाँ तक कि कभी-कभी अपमानित होकर
मैं बंधा रहा
लोग कुठाराघात करते रहे
मैं मौन बडा सब देखता रहा
अंजान बना रहा
संबंध निभाता गया
पीड़ा सहता गया
मुस्कराता रहा
फिर भी मेरा दर्द कोई समझ न पाया
कहने की कोशिश की न जाने कितनी बार
हर बार अपने को ही कटघरे में खड़ा पाया
हर बार जबान पर ताला लगा दिया
मुझ पर ही दोषारोपण कर दिया
अब पानी सर से उतर गया
हर सीमा खत्म हो गई
संबंधों की बलिवेदी पर अब और आहुति देना संभव नहीं
अपनी राह जुदा कर ली
अब किसी को यह रास भले न आए
मैंने तो फैसला कर लिया