Friday 30 June 2023

बरसात का आनंद

बारिश आई है
जी भर भीग लीजिए 
भागिए मत 
छाता न हो रेनकोट न हो
कोई बात नहीं 
गल नहीं जाएंगे
हमेशा तो बाल्टी में पानी भर स्नान करते हैं 
शावर की फुहार लेते हैं 
प्रकृति की फुहारे ले 
जितना चाहे उतना 
जी भर कर 
यह नल का पानी नहीं 
प्रकृति स्नेह बरसा रही है
बच्चे बन जाएं 
छपाक छपाक 
देखने वाले देखते रहें 
क्या फर्क पडता है
जिसका इंतजार इतनी शिद्दत से किया 
उसी के आने पर घबराना 
अरे छोडो यह घबराहट 
भीग लो 
चार महीने ही तो साल के हैं 
कुछ क्षण तो गुजारो 
बरसात के आनंद में 

मृत्यु से डर

डर यह बडा खतरनाक है
जीने का मजा ही किरकिरा कर देता है
बचपन का डर फिर भी ठीक था 
पढाई और होमवर्क का डर 
जैसे जैसे बडे हुए 
डर का दायरा बढता गया
रास्ते पर चलने से डर 
छेड़खानी से डर 
किसी से बात करने से डर 
कोई क्या कहेगा 
इस बात का डर 
क्या पहनना - ओढना 
कहाँ जाना - आना 
सब पर दूसरों की मर्जी 
ब्याह होने पर ससुराल वालों का डर
सास , नन्द,  जेठानी का तो होता ही है
सबसे ज्यादा जीवनसाथी से डर 
कहाँ साथ देगा कहाँ नहीं 
समाज का परिवार का अडोस - पडोस का 
रिश्तेदारों का सगे - संबंधियों का
ऐसे न जाने कितने डर से डरते हुए 
आज जब उमर बीती तब
बुढापे का डर 
बीमारी का डर 
बच्चों से डर कि कैसा रखेंगे 
आनेवाले दिन कैसे रहेंगे 
मौत कैसे आएंगी 
जिंदगी से तो डरते ही रहें 
मृत्यु से भी डर 

आज का अखबार

पुराने अखबारों का ढेर जमा हो गया था
रद्दी वाले को फोन कर बुलाया 
हर महीने- दो महीने में आकर ले जाता है
अखबार को तौला तो पाँच किलों में कुछ ग्राम कम निकला 
कैसे किलों हैं 
बारह रूपये बताया 
अरे, अभी तो पिछले महीने पन्द्रह था 
भाभी जी भाव कम हो गया है 
वैसे भी आजकल अखबार पढता कौन है 
मोबाइल,  इंटरनेट पर सब उपलब्ध है
बात एकदम सही थी
हम तो पढ रहे हैं 
हमारी अगली पीढ़ी नहीं पढ रही है
किताबों  , अखबारों का प्रचलन कम होता जा रहा है
हमसे पहले वाली पीढ़ी तो एक - एक शब्द चाट डालती थी
डिक्शनरी लेकर बैठती थी 
हम मोबाइल के युग में जरूर है
पर वाचन से लगाव अभी भी है
टेलीविजन पर समाचार देखते हैं फिर भी अखबार पढते हैं 
नहीं पढें तो लगता है कुछ खो गया है
यह सोच ही रही थी 
कि एक बच्चे का वाक्य याद आ गया 
अखबार में तो बासी समाचार होता है
मोबाइल और टेलीविजन पर तो तुरंत की ताजा ताजा
बात तो यह भी सही
शायद यह वक्त का तकाजा है
समय भी नहीं है
वह घर जहाँ कभी अखबार के लिए झगड़े होते थे आज कोई उठाकर नहीं देखता
तब फिर यह भी क्या ब्लेक एंड व्हाइट टी वी की तरह हो जाएंगा 
प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ 
क्या टेलीविजन के चीखते - चिल्लाते पत्रकारों के हाथों खिलौना बन जाएंगा 
लाखों  - करोडों की ताकत और सत्ता पलट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला अखबार 
नेपोलियन की तरह अखबार का लोहा मानेगी क्या आगे वाली पीढ़ी 
प्रश्नचिन्ह है यह 
असतित्व खतरे में हैं 
अखबार , खबर ही नहीं छापता 
हमारे दिल के करीब हो जाता है
वर्षों पढा हुआ और घटनाएं याद रहती है
डर लगता है यह कहीं स्वयं एक घटना न बन जाएँ  । ।

ट्रेन के मुसाफिर

ट्रेन में लटकते लोग
जान हथेली पर लेकर चलते लोग
यह ट्रेन समय पर पहुचाएगी 
अपनों से मिलाएगी 
इसी खुशी की आस में 
मन में सबसे मिलने की कल्पना 
यह होगा वह होगा
कहीं कल्पना न रह जाएं 
मिलने से पहले बिछड़  न जाएँ 
बडी कठिन परिस्थिति 
यह केवल दूर की यात्रा के लिए ही नहीं 
उनके लिए भी जो रोज काम निमित्त ट्रैवल करते हैं 
रोज जीते - मरते हैं 
सुबह अनिश्चित होकर निकले 
शाम को घर पहुँचे तब तक
उनके परिजन भी उनके इंतजार में 
सुबह होती है
शाम होती है 
जिंदगी यू ही तमाम होती है 

Wednesday 28 June 2023

क्या पांचाली ही दोषी ??

पत्नी मैं पांच पांडवों की 
महाबलशाली, महावीरों की
हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ की महारानी
राजा दुपद्र की बेटी 
फिर भी रही मैं हारी

अगर सखा कृष्ण न होते तब
भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयत्न 
मेरा क्या दोष था
हमेशा मेरे साथ ही अन्याय क्यों ??
पांच पतियों की पत्नी बना दिया गया
स्वयंवर किसी एक ने जीता
बनी सबकी पत्नी

औरत नहीं मुझे वस्तु समझा गया
तभी तो दांव पर लगाया था धर्मराज युधिष्ठिर ने 
तब उनका धर्म कहाँ गया था
चुपचाप सर झुकाएं सुन रहा थे
जब मुझे जंघा पर बिठाने की बात हो रही थी
मुझे वेश्या कहा जा रहा था

ऐसा धर्म पालक पति 
क्या पत्नी के प्रति धर्म नहीं था
ऊपर से मुझे कहा जाता है 
मैंने भेद किया पतियों में 
मैं पत्नी तो थी सबकी
पर मनसा प्रिया हमेशा पार्थ की ही रही
तभी पहाड़ चढते समय सबसे पहले मैं बर्फ में समाई
क्योंकि यह पाप तो मैंने भी किया था

कर्तव्य तो मैंने पत्नी धर्म का निभाया
पर मन पर तो किसी का अधिकार नहीं 
मुझे तो कभी समझा ही नहीं गया 
न मेरी पीडा को महसूस किया गया
पांच पतियों की पत्नी होने का दंश मैंने सहा है
कभी व्यंग्य कभी अपमान स्वरूप 

मेरी स्थिति क्या थी
वन वन भटकना 
खाने - पीने और सुख - सुविधा का ख्याल रखना
एक सूत्र में  बांधे रखना
यह मैंने बखूबी निभाया 
मैं तो  शक्ति थी पांडवों की 
यह मुझे पता था
इसलिए मुझे लेकर कभी विवाद नहीं हुआ

हाँ मैं हर बार मरी
फिर वह चाहे 
जयद्रथ प्रसंग हो
चीर हरण हो
मर तो मन उसी दिन गया था 
जब स्वयंवर में  मछली की ऑख फोडी गई थी
पांचों भाईयों में बांटी गई थी
दोष मुझे दिया जाता है
महाभारत का कारण मैं  थी
न मैं थी न दुर्योधन था
बीज तो तब पडा था 
जब देवव्रत भीष्म का अधिकार छीना गया था
माता सत्यवती के  कारण 
जब काशी नरेश की कन्याओं को जबरन लाया गया था 
जब महाराज धृतराष्ट्र का ब्याह माता गांधारी से हुआ था
दुर्योधन तो उसी वृक्ष का फल था

हस्तिनापुर में नारियों का अधिकार छीना गया था 
अन्याय हुआ था
वह कहाँ जाता
उसकी एक कडी तो मैं भी बनी
कोई हर कर आया
किसी का चीरहरण 
तब महाभारत अवश्यभांवी था ।

बाप - दादा की जमीन

आज मैंने अपनी जमीन बेची है
जमीन ही नहीं बहुत कुछ बेचा है
पुरखों की धरोहर बेची है
किसी की मेहनत बेची है 
किसी की खुशियाँ बेची है
मिट्टी की खुशबू बेची है
यह जमीन ऐसे तो नहीं बनी थी
न जाने कितनों ने खून पसीना बसाया था
घर की रोजी रोटी थी
अभिमान थी
जब फसल लहलहाती थी तब दिल भी लहलहाता था
पशु-पक्षियों का भी आसरा था
संयुक्त परिवार टूट गए
हम आ गए शहर में 
यहाँ फ्लैट खरीदा
बच्चों को पढाया लिखाया 
अब वो भी काबिल बन गए
गाँव की जमीन का क्या करना है
यही कहीं फार्म हाउस बनाएँगे 
छुट्टियों में मजा करने जाएंगे 
जमीन का झंझट छोड़ो 
किसे खेती करना है
सही भी तो है बात उनकी
अभी बेच देते हैं 
बंटवारा कर देते हैं पैसों का
जिस दिन बेचा 
उस दिन ऑख भरभरा आई थी
मानो बाबा आकर कह रहे हो
बचवा यह क्या कर रहे हो
अपनी माँ को नीलाम कर रहे हो
धरती हमारी माता है
न जाने कितनी पीढियों का लालन-पालन किया है
इसी के भरोसे शादी - ब्याह,  मरनी- जीनी , कार - परोज 
आज पैसा आ गया है इसलिए उसे बेच रहे हो
पैसा है फिर भी पैसे के लिए 
कितना लालच समा गया है
जमीन की सुरक्षा के लिए लडाई लडी है
भाला - डंडे चलाए हैं 
पटीदारो से लोहा लिया है
अभाव भले हुआ हो कभी जमीन के टुकड़े को भी बेचने की नहीं सोची
आज सब खत्म 
जमीन के साथ ही हमसे भी तो नाता खत्म 
अब कोई नहीं कहेगा 
हमारे बाप - दादा की जमीन है ।

Tuesday 27 June 2023

पक्की सडक

अब गाँव में कच्ची सडके नहीं है
सब पक्की बन गई है
पहले जिस पर बैलगाड़ी और इक्का चलते थे
साईकिल और पैदल चलते थे
आज उस पर फर्राटेदार गाडिया और बाइक दौड़ रही है
कितना सब कुछ आसान नहीं हो गया है
अब समय नहीं लगता
यही सडक हमें शहर तक पहुंचाती है
गाँव से लेकर शहर की दूरी हमने माप ली
हम वह गाँव ही छोड़ चले
पगडंडियाँ भूल गए 
अब मिट्टी नहीं लगती पैर में 
अब उबड खाबड़  नहीं सब समतल है
लेकिन इन्हीं पगडंडी और कच्चे रास्ते पर चलकर हम बडे हुए हैं 
सडक तो बनी गाँव छूट गया 
सबको लेकर जा रही है यह सडक 
धीरे-धीरे गाँव खाली हो रहे हैं 
घर वीरान हो रहे हैं 
कमाने और बडा बनना है सबको
इसमें एक भूमिका इस पक्की सडक की भी है
मन को पक्का बना लिया 
सब छोड चले ।

मैं हूँ ना

सब ठीक होगा 
कुछ नहीं होगा
मैं हूँ ना 
यह शब्द 
I love you 
से ज्यादा मायने रखता है
प्यार तो बहुत लोग करते हैं 
पर साथ खडे रहना 
हर परिस्थिति में डटे रहना 
जो भी है जैसा भी है 
मेरा है 
सबसे ज्यादा मुझे प्यारा है
यह साथ होता है
माता- पिता का 
कहीं न कहीं मन के कोने में एक अनुभूति होती है
लडकी जब अपने पति से लडकर कहती है
मैं मायके चली जाऊंगी
एक गुरूर होता है
मेरे लोग भी हैं 
मैं लाचार नहीं हूँ 
हाँ यह बात दिगर है 
हर माता-पिता चाहते हैं 
बेटी अपने घर में रहें 
यह आश्वासन जरूर दे
हमारे घर के दरवाजे खुले हैं 
हम हैं ना घबराने की बात नहीं है 
मैं हूँ ना 
अभी जिंदा हूँ 
एक पिता का कहा हुआ वाक्य याद आता है
अब वह नहीं रहे 
पर शब्द जस के तस हैं 
बहुत मिस करते हैं 
इस शब्द को 
मैं हूँ ना। 

आज का सच

वह घर था खपरैल का
मिट्टी का घास का 
जमाना बदला
अब उसको कम ऑका जाने लगा
सीमेंट और ईटों का पक्का घर बनने लगा
आदमी की हैसियत का अंदाजा लगाया जाने लगा
अरे उसका तो पक्का घर है
दो मंजिला कोठी है
कच्चा घर को हिकारत की नजर से देखा जाने लगा 
उसमें रहने वालों की भी तुलना होने लगी
अमीरी-गरीबी का भी सवाल उठने लगा
सब इस होड में शामिल हो गए 
दो कमरे का मकान हो पर पक्का हो
घर की मिट्टी भी अपने को असहज महसूस करने लगी
विकास की आंधी ऐसी चली
अब पक्के ही पक्के घर चहुँओर 
जब गर्मी से तपते हैं 
बिजली चली जाती है
तब याद आ जाता है अपना मिट्टी का घर
मिट्टी से नाता तोड़ लिया 
पेड़ से नाता तोड़ रहें 
तालाब और कुएँ को पाट रहे
नलको से पानी भर रहे
वह सदाबहार कुआं 
जब चाहो पानी उचिल लो
नल का तो इंतजार 
बिजली का इंतजार 
हवा की जरूरत नहीं 
ए सी , पंखा ,कूलर तो है
सब बदला 
तब प्रकृति को दोष क्यों 
उसका तो स्वभाव ही परिवर्तन शील है
अब फेसबुक पर डालकर उस मिट्टी वाले घर - आंगन को याद कर रहे हैं कुछ 
सब तो छूट रहा है
वह घर वह आंगन 
वह संयुक्त परिवार 
वह पडोस और रिश्तेदार 
वह दोस्त और मेहमान 
बस घर से ऑफिस 
ऑफिस से घर 
छुट्टी के दिन होटल और रिसोर्ट 
वसुधैव कुटुंबकम की बात दिखावा 
अपनेपन में जकड़ा 
मकडी की तरह अपने ही जाल में बुन कर फंसे रहना
शायद यही आज का सच है ।

Monday 26 June 2023

राहुल जी की शादी की बात

ब्याह कर लीजिये 
हम सब बराती बन कर चलेंगे 
आपकी मम्मी बोलती है 
बात नहीं मानता 
आप बोलिए 
इस बात में तो कोई राजनीति नजर नहीं आती
यह बात लालू जी ने राहुल से कहा
यह एक बडे का रिक्वेस्ट हैं 
अमूनन हर घर में ऐसा होता है
मैडम सोनिया जी ने लालू जी से कभी व्यक्त की होगी अपनी बात 
हर माॅ चाहती है
उसके बच्चे का घर बसे
बस यही बात है
इसको ज्यादा तूल देना
इस पर राजनीति करना
यह तो बेकार है ।

अन्याय का साथ

मैं लडका हूँ 
मैं पुरूष हूँ 
यह क्या मेरा गुनाह है
मैंने तो अपनी माता को हमेशा सम्मान दिया
और दूसरे रिश्तों को भी
किसी का पोता , भतीजा , भांजा   , भाई 
दोस्त और पडोसी भी
हमेशा मर्यादा में रहा 
सबका ख्याल रखा
इसके बाद भी जब सडक पर चलता हूं 
बस और ट्रेन में खडा होता हूँ 
डर लगता है
कौन जाने कब कौन सा तोहमत लगा दिया जाएँ 
इधर-उधर और सामने देखना भी मना है
नारी सशक्तिकरण का जमाना है
कानून उनके पक्ष में हैं
दोषी हमेशा पुरूष ही हो
यह जरूरी तो नहीं 
न जाने कितने निरपराध कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं 
झूठे मामलों में फंसाए गए हैं 
कभी दहेज तो कभी बलात्कार 
कानून ही दंड नहीं देता
यह समाज भी दंड देता है
जब तक सही फैसला होगा
तब तक जिंदगी ही बदल जाती है
जीते जी वह मर जाता है
लोग रास्ते चलना दुश्वार कर देते हैं 
कुछ तो नहीं आत्महत्या कर लेते हैं 
पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है
बदनाम हो जाता है
अगर समानता का अधिकार है
तब सबका नजरिया भी समान हो
दोषी तो कोई भी हो सकता है
हमेशा पुरूष ही नहीं 
औरतें तो इसमें कहीं भी कम नहीं है
सोशल मीडिया का जमाना है
किसी के बारे में अफवाह फैलने में 
उसे कुख्यात करने में देर नहीं लगाती 
सही बात को जाने बिना
हर घर में लड़के और पुरुष हैं 
जरा सोचा जाएं 
कभी खुदा न खास्ता उनके साथ ऐसा हुआ तो
बिना सोचे समझे 
बिना विचार किए
किसी के बारे में गलत धारणा बनाना
बदनाम करना 
यह तो बहुत बडा अपराध है 
हो सके तो सबके साथ न्याय हो
अन्याय का साथ कभी न दे ।

Sunday 25 June 2023

मुंबई की मानसून

मुंबई की मानसून 
है बहुत लाजवाब 
यहाँ घर से निकलता है व्यक्ति 
भागता है दौड़ता है 
बस , रेल , ऑटो पकडता है
भीजता है 
छाता तो बस नाम का है
हाँ उफ नहीं करता
भजिया खाता है कटिंग चाय पीता है
चल निकलता है
काम करता है
शाम को फिर भागता है
उसी ओर जहाँ से आया था
गरम गरम बडा पाव लेता है
ठंडा पानी पीता है
ऑखे लगी रहती है समय पर
परेशान होता है 
कीचड़ से ट्रैफिक से
दिल से धन्यवाद देता है प्रभु को
बारिश तो आई
सबके मन भाई 

जल तो जल है

बारिश बरसे झमझमा झम
फूल महके गमगमा गम
पेड़ हरषे हरहरा हर
चिड़िया चहके चहचहा कर
हवा चले सरसरा कर 
जीव झूमें झूमझमा कर 
कीट - पतंगे गाए धुन सुनाकर 
बिजली चमके चमचमा कर 
बदरा आए घिरघिरा कर 
तारे आए झिलमिला कर 
बादल गरजे गडगडा कर 
ऑधी आई
हवा चली
मिट्टी उडी 
कुछ खडे रहे कुछ डोले 
कुछ भरभरा कर गिर पडे
सामना सबने किया 
खुशी से झूमकर 
इंतजार जो था
कुछ भी हो
यह इंतजार कभी खत्म नहीं होता
जल जो है
वह है तभी तो जीवन है


औकात तो दिखानी पडेगी

कलेजा मुंह को आ गया 
लगा जैसे दिल , शरीर से बाहर आ गया 
विवश और मजबूर 
इतना तो कभी नहीं हुआ था
बडी बडी विपत्तियों का सामना किया था
डट कर लोगों से लोहा लिया था
किसी की बात बर्दाश्त नहीं कर सकने वाला 
आज चुप और मायूस है
दूसरों से तो लड लो
प्रतिकार कर लो
बात तो तब होती बडी है
जब मामला बेटी से जुड़ा हो
अपने नाजो से पली बेटी
दिल का टुकड़ा 
उस पर जब आघात होता है
और हम मूक बने रह जाते हैं 
वह ऑसू छुपाती है
अपने घाव छुपाती है
बहाने बनाती है
झूठमूठ की खुशी दिखाती है
पर बाप हूँ न 
उस की रग रग से परिचित हूँ 
वह शैतानी करने वाली
वह मनमानी करने वाली
वह किसी की बात न मानने वाली 
वह हठ- जिद करने वाली
अपना मनपसंद करवा कर ही दम लेनेवाली 
आज इतना बदल गई
वह ही नहीं बदली
मैं भी तो बदल गया हूँ 
प्रतिकार की जगह उसे एडजस्टमेंट करना सिखा रहा हूँ 
आखिर क्यों 
क्या डर है 
उसकी घर - गृहस्थी न टूटे इसलिए 
वह तो रोज ही टूट रही है
मैं भी टूट रहा हूँ 
इस रोज रोज टूटने से अच्छा 
क्यों न उस संबंध को ही तोड़ दिया जाएं 
जीना है तो मर कर जीने से क्या फायदा
जिंदा लाश बनना है 
शायद नहीं  
बिल्कुल नहीं 
तब उठ खडे हो
प्रतिकार करों 
अन्याय का अत्याचार का
जिंदगी गुलामों जैसी गुजारने के लिए नहीं है
अगर कोई औकात में नहीं रहता है
तब तो उसकी औकात भी दिखानी पडेगी ।

Friday 23 June 2023

आओ बरखा रानी

यह हरे भरे पेड
यह हरी भरी घास
छोटे-छोटे फूल - पौधे - पत्ती 
चिड़िया- चुरूग , प्राणी
सब इंतजार में हैं 
कब बारिश हो
सभी गर्मी से बेहाल
सुबह आशा रहती है
शाम होते होते फिर निराशा
रात को सोते समय फिर आशा 
शायद आज बारिश हो
पर वह तो गायब है
हम त्रस्त हैं 
कुछ समझ नहीं आ रहा है
ऊपर वाले पर आस
शायद अब हो बरसात
अब तो कृपा करो
आओ बरसो मन भर
हम भी झूमें 
सारी प्रकृति झूमें 
गर्मी हो रही है असहनीय 
सहनशक्ति दे रही जवाब
आओ ना अब सबकी प्यारी 
मेरी , हमारी  , सबकी बरखा रानी 

Sunday 18 June 2023

Happy father's day

बाबूजी तुमसे ही तो हम
तुममें ही था हमारा संसार 
वह झोला टांग कर स्कूल ले जाना
ईरानी होटल में बडा - पाव , मिसल - पाव खिलाना
वह मेरे लिए खटिया लगाना
किताबों को रखना 
ताकि मैं किसी तरह पढूं 
वह एडमीशन के लिए काॅलेज का चक्कर लगाना
मैं पढ़ाकू नहीं यह पता था
फिर भी अपनी बिटिया को कम नहीं समझना
आरामतलब है यह 
जैसे पढती है पढे
कभी ज्यादा अपेक्षा न रखना
ग्रामर सिखाना 
भूतकाल,  वर्तमान काल और भविष्य काल की रचना बताना
मेरे पल्ले कभी नहीं पडा
गो और गोइग 
हाँ आज आप चले गए 
तब समझ आ रहा है
काल का मतलब 
वह सुनहरा काल था आपके साथ वाला लम्हा 
आधुनिकता और मार्डन कहने वालों को
धता बताने वाले
एक पीढी आगे चलने वाले
शायद मैं वह न बन पाई
दब्बू ही बन रह गई
एज्युकेशन क्या होता है
ऐज्युकेट किसे कहते हैं 
यह तो कोई आपसे सीखे
गीता को जीवन में धारण करने वाले
हम समझ नहीं पाएं 
अब भी हर बात में आपकी याद आती है
ऐसा लगता है 
व्यक्तित्व में आप ही समाएं हैं 
यह समाज तो तब भी था
अब भी है 
आगे भी रहेंगा
पर आप जैसा बाप हो
वैसा आधार हो
औकात नहीं किसी की
उसके बच्चों पर कोई ऑच हो
कभी रोते नहीं देखा 
हमेशा मुस्कराते हुए
पर रोएं तो आप भी होंगे 
कब - कब 
यह तो हम ही जानते हैं 
आप भी जानते होंगे 
मुंह लगे थे 
बोल देते थे कुछ भी
प्यार भी तो उतना ही करते थे
यह बाप - बेटी का नाता
सबको समझ नहीं आएगा 
बस इतना ही काफी है
मैं आपकी बेटी हूँ 
आप मेरे बाबूजी ।

Friday 16 June 2023

मैं बंजर नहीं हूँ

मैं बंजर नहीं हूँ 
होना भी नहीं चाहती
हाड- मांस का शरीर है
उसमें एक धडकता दिल भी है
उसकी अपनी भावनाएं हैं 
उसके अपने सपने हैं 
उसकी अपनी कल्पना है
उसकी अपनी आशा- आकांक्षा है
सब कुछ इसी दिल के इर्द-गिर्द घूमता रहता है
कभी खुश होता है
कभी गमगीन होता है
कभी हंसता है
कभी रोता है
कभी नाराजगी जताता है 
कभी उदास और तनावग्रसित 
कभी खुशी से बल्लियों उछलता है
कभी इतना बोलता है कि सुनने वाले थक जाएं 
कभी इतना चुप कि लोग पूछे
कभी इतना क्रोधित कि दूर ही लोग रहे
कभी अजनबी से भी प्यार
कभी अपने ईश्वर को भी कोसना 
कभी उनकी कृपा का गुणगान करना
कभी इतना घुल- मिल जाएं कि महफिल ही जमा दे
कभी शेरों- शायरी और कविता करना
कभी मन मारकर बैठ जाना 
कभी वाह करना तो कभी आह करना 
यह सब ही तो जीवंतता है
मन अभी बंजर नहीं हुआ है
मरा नहीं है
संवेदनाएं लुप्त नहीं हुई है
सांस ले रहा है
ठंड , गर्म और वर्षा को महसूस कर रहे हैं 
पतझड़ और वसंत दोनों को जी रहे हैं 
खुलकर हंस भी रहे हैं 
बुक्का फाडकर रो भी रहे हैं 
जब जब जो हो रहा है वैसे ही
छुपाना और बनावटीपन ज्यादा नहीं चलता 
जो हैं जैसे भी हैं 
हम बंजर नहीं हुए हैं 
आज यह तो कल वह
वक्त का पहिया है
उसके साथ चलते रहते हैं 
खाद - पानी मिला 
कोई खुशी आई 
फिर हरे भरे हो उठे
जानते हैं 
आज यह तो कल वह
भूत और भविष्य के बीच 
वर्तमान में हम ही तो केंद्र हैं 
जब तक चिता पर नहीं तब तक चिंता भी साथ 
कभी अपनी , अपनों की 
यह ही तो बल है
समय-समय पर उठ खडे होते हैं 
यह जता देते हैं 
अभी हम बंजर नहीं हुए हैं। 

Tuesday 6 June 2023

बरगद

आज वट पूर्णिमा है
विश्व पर्यावरण दिवस भी है
वट पूर्णिमा के दिन स्त्रियां इसकी पूजा करती है
फेरे लेती है
पति की मंगल कामना करती है
उनकी लंबी आयु का वरदान मांगती है
सावित्री और सत्यवान की कथा से जुड़ी है यह पूजा
देखा जाय तो यह सही मायनों में पर्यावरण दिवस ही है
जहाँ पेड की पूजा और परिक्रमा की जाती है
वह भी बरगद का पेड़
जो कोई फल नहीं देता
लेकिन ऑक्सीजन भरपूर देता है
पेड़ सलामत रहेंगे
तभी तो जग सलामत है
संयोग है आज यह एक साथ आए हैं
पेड़ मानों कह रहा हो
   मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा
   इस धागे को याद रखूगा
  पति क्या पूरे परिवार की रक्षा करूँगा
   अपनी सामर्थ्य भर प्यार लुटाऊगा
   तुम निश्चिंत रहना बहना
   तुम्हारे इस धागे का कर्ज हर पल चुकाऊगा
    मैं खडा हूँ इस तरह
    यह भी तो एहसान है
    जब तुमने मुझे जीवन दिया है
     तब तुमको भी तो जीने के लिए 
     प्राणवायु दूंगा

मैं माॅ हूँ

आज तूने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया
घर से बाहर निकाल दिया
वह घर जो मैंने बडे प्रेम से बनाया था
तुम लोगों को पाला और पोसा था
तुम्हारी शैतानिया को नजरअंदाज करती थी
तुम्हारी अठखेलियो को निहारती थी
तुम्हारी हर इच्छा पूरी करती थी
मनभावन भोजन खिलाती थी
थोड़ी देर न देखने पर बेचैन हो जाती थी
मन में गुस्सा आता था
तुझे देख सब भूल जाती थी
सारा गुस्सा छू मंतर
तुझे मारती या डाटती
उस दिन स्वयं रोती थी
अब ऐसा क्या हो गया
तू इतना बदल गया
रह पाएंगा मेरे बिन
जो मां तेरी जान होती थी
मेरा क्या है
कितनी जान बची है
गुजर ही जाएंगी
सडक किनारे या वृद्धाश्रम में
पर तू क्या चैन से सो पाएंगा
तेरा मन नहीं कचोटेगा
तू जैसा भी है मेरा बेटा है
जिगर का टुकड़ा है
तेरे बारे में बुरा कैसे सोच सकती हूँ
तू कुछ भी करें
तब भी दुआ ही निकलेगी
बददुआ नहीं
माँ हूँ न
तुझे दुखी नहीं देख सकती
ईश्वर तुझे हमेशा सुखी रखे
फलें फूले और आगे बढें
यही बहुत है मेरे लिए