Sunday 31 October 2021

डायरी नहीं सच्ची सहेली है

यह मेरी डायरी है
मेरे पल - पल की साथी
यह मेरे जितने करीब है उतना कोई नहीं
मेरे अंतर्मन की थाह इसी के पास
जब यह खुलती है
इसकी साथी कलम जब पन्नों पर  उकेरती है मेरे मन के भावों को
मेरी उदासी की साथी
संघर्ष की साथी
रात के  तम अंधेरे की साथी
सबसे कुछ  न कुछ छुपा है पर इससे कुछ भी नहीं
यह सब कुछ जानती है
समझती है
दैनंदिन का लेखा-जोखा सब इसके पास
कभी यह मेरे साथ हंसती है
कभी रोती है
कभी दिलासा देती है
मन का चित्रण  इसी के पास
कौन समझेगा
कौन सराहेंगा
इसके बिना
कभी-कभी ऑसू भी टप - टप
उन्हें भी यह प्यार से समेट लेती है
अक्षर धुंधले पड जाते हैं
बहुत प्यार है मुझे  इससे
यह मेरी जीवन गाथा है
बहुत प्रिय भी है
तभी इसे बहुत संभाल कर रखती हूँ
सबसे छुपाकर रखती है
डायरी नहीं यह सच्ची सहेली है

जीओ तो संपूर्णता से

जीओ तो संपूर्णता से
आधा - अधूरा भी कोई जीना है
डर - डर कर भी कोई जीना है
चिंता लेकर चिता पर सवार होना भी कोई जीना है
प्यार करो तो शिद्दत से
सम्मान करो सम्पूर्ण मन से
कर्तव्य करो तो मन से
मेहनत करो तो पूरे ताकत से
सीखो तो पूरे भाव से
पूजा करो तो पूरी श्रद्धा से
स्वाभिमानी बनो
कर्तव्य शील बनो
भक्त बनो
अपना कर्म करों
जितना सीख सको , सीखो
जितना ग्रहण कर सको , करों
जितना दे सको, उतना दो
सब कुछ यही रहना है
साथ कुछ नहीं जाना है
फिर जी लो जी भर कर
कल का नहीं ठिकाना है
कल कहाँ आना है
सब आज ही में रह जाना है
जीओ तो संपूर्णता से
आधा - अधूरा भी कोई जीना है

यह जीवन है

यह जीवन है
यहीं  रणक्षेत्र
यहीं धर्मक्षेत्र हैं
हैं हम इस धरा के वासी
यहीं हमारा कुरुक्षेत्र हैं
हर पल लडना है
जीवन अनिश्चित है
कौन कब काल बन कर टूटेगा
यह अनिश्चित है
यहीं महाभारत का रण है
नहीं किसी पर विश्वास
सब एक - दूसरे के दुश्मन है
सबके मन में कोई न कोई कसक समाई
सब एक - दूसरे से बदला लेने को आतुर
मिलते हैं बडे प्रेम से
मन में ईष्या की ज्वाला धधकती है
हर कोई मौका तलाश रहा
किसी को नीचा दिखाने का कोई कसर नहीं छोड़ रहा
हर दूसरा दुर्योधन
हर दूसरी द्रोपदी है
मान - अपमान की आग में झुलसते हैं
बदला लेने को आतुर
व्यंग्य बाण छोड़ने में पारंगत
कब किसका हथिया ले
कब किसकी मेहनत की कमाई पर डाका पड जाय
कब भरी सडक पर इज्जत उतारी जाय
लोग मुकदर्शक बन देखते रहें
सर नीचा कर वहाँ से खिसक ले
यह एक ऐसा चक्रव्यूह है
जहाँ अभिमन्यु तो एक है
जयद्रथ बहुत सारे हैं
यहाँ न विदुर हैं न कृष्ण हैं
बस स्वार्थ में लिपटे लोग हैं
राजतंत्र और प्रजातंत्र
दोनों के बीच पीसता सामान्य जन
जीना इतना आसान नहीं
यह जीवन है

ऑनलाइन और ऑफलाइन

आज सब कुछ आसान है
ऑनलाइन का जमाना है
भूख लगी हो तो खाना मंगा लो
राशन चाहिए तो वह भी मंगा लो
घर की आवश्यकता की हर चीज हाजिर
बस मोबाईल या लैपटॉप पर टिप टिप करो
हो गया काम आसान

कपडे- जूते से लेकर फैशन का हर सामान
साबुन - सर्फ से लेकर हर दैनिक जरूरत पूरी
फर्नीचर और घर सजावट का हर सामान उपलब्ध
पसंद न हो तो वापस करने की भी झंझट नहीं
वापस कर दो
देखदाख लो
कितना आसान है न सब

अब टैक्सी और बस का इंतजार नहीं
ओला - उबर बुक करो
दरवाजे पर आकर खडी
अब टिकट रिजर्वेशन के लिए काऊंटर पर जाने की जरूरत नहीं
रात भर बिस्तर लगाकर सोने की जरूरत नहीं
अब सब कुछ नेट से
कितना आसान है न सब

अब बैंक जाने की जरूरत नहीं
बैंक आपके दरवाजे पर
पैसे निकालने के लिए पे टी एम भी हाजिर
न जाने और कितना कुछ हासिल

डाँक्टर भी ऑनलाइन
टीचर भी ऑनलाइन
पढाई भी ऑनलाइन
तब संबंध भी ऑनलाइन
किसी के यहाँ जाने की क्या जरूरत
मिलने - मिलाने की क्या आवश्यकता
फेसबुक और व्हट्सप हैं न
बातचीत हो जाती है
कुशल - क्षेम जान ली जाती है
एक नहीं हजारों- लाखों मित्र बन जाते हैं
भले ही कभी न मिले हो

हाँ यही तो बात है
मशीन हावी है
संबंध ऑनलाइन है
सच तो यह है
वह प्रेम और अपनापन नहीं है
मशीन के पास तो भावना नहीं है न
भावना और प्रेम का आदान-प्रदान
ऑफलाइन ही होगा
ऑनलाइन नहीं

Saturday 30 October 2021

मैं और तुम से हम

वैसे तो दिखते तो हम अलग- अलग है
वैसा हैं नहीं
मुझमें तुम तुममें मैं
यही है जिंदगी की हकीकत
एक की पसंद दूसरे की पसंद
एक की परेशानी दूसरे की परेशानी
एक का दर्द दूसरे का दर्द
साथ नहीं फिर भी साथ-साथ
ऐसे ही दशकों बीत गए
कब तुम और मैं से
हम , हम हो गए
तुम्हारी खुशी मेरी खुशी
मेरी खुशी तुम्हारी
उम्र के इस मोड़ पर तेरा  - मेरा नहीं रहा
शिकवे - शिकायत नहीं रही
बस एक - दूसरे की फिक्र है
जब तक तुम तब तक मैं
तब तक ही हम

Friday 29 October 2021

अकेले तो रहना ही है

दो पक्षी उडते उडते एक - दूसरे से मिले
एक पेड़ की डाल पर बैठे
ऑख से ऑख मिली
इशारों- इशारों में बात होने लगी
पता ही न चला
कब दोनों एक - दूसरे के करीब आ गए
साथ जीने - मरने की कसमें खाने लगें
एक - दूसरे का ख्याल रखने लगें

दोनों अब रोज मिलते लगें
समय साथ - साथ बिताने लगें
दोनों ने निश्चय किया
अब अपना घोंसला बनाएंगे
जो केवल अपना हो
अपना नीड अपना घर

दोनों ने अपना - अपना घर छोड़
एक नया आशियाना बसाया
जिसमें बस अब वे ही दो थे
नहीं  कोई दखलअंदाजी  न कचकच
बस अपना ही अधिकार अपना ही राज

कुछ समय के बाद परिवार में नए मेहमान का प्रवेश
दोनों बहुत खुश
इस तरह एक के बाद दूसरे का भी
अब चिंता लगी
उनके पालन पोषण का
उनके भविष्य का
दोनों खूब काम करने लगें
जी - जान से लग गए
सुबह बच्चों को छोड़ जाते
देर रात तक घर आते
सारा इंतजाम कर जाते
फिर भी बच्चे तो अकेले ही रह जाते
किसी को बात करने की फुर्सत नहीं

बच्चे भी काबिल निकले
सीख कर किसी दूर देश में निकल गए
ये दोनों फिर भी खुश नहीं
जो चाहा सब है फिर भी
ये अकेले रह गए
जब पंख लग गए हैं तब उडना तो है ही
सो बच्चों ने वही किया
जो एक समय इन्होंने किया था
मायूस क्यों हो
यह तो जीवन चक्र है

एक समय तुमने छोड़ा
एक समय वह छोड़े
अपना - अपना जीवन जीने का हक सबको है
तुमने अपनी जिंदगी जी
वे अपनी
अकेले तो रहना ही है
वह तो नियति है
उसे कैसे टाले।

दीवाली में सबकी भागीदारी

दीपावली आ रही है
दस्तक दे चुकी है
तैयारी शुरू
रंग रोगन , साफ सफाई
खरिदारी  इत्यादि
केवल हमारे घर ही दीप जले
हमारे घर ही खुशी हो
नहीं
सबका मुंह मीठा हो
फुलझड़िया और अनार जले
तोरण - बंदनवार लगे
कंदिल जगमगाएँ
सही है न
हम तभी खुश होंगे
जब सब खुश होंगे
हमारे अडोसी - पडोसी
हर देशवासी
तब स्वदेशी अपनाए
अपने देश का दीया
अपने देश का सामान
अपने देश की लाईट की लडी
जो जगमगाएँ तब लगे देश जगमगाएँ
विदेशी सामान के लोभ में
थोडा सा सस्ता होने के कारण
यह सोचे
यह सस्ता कितना मंहगा पड रहा है
हमारी अर्थव्यवस्था को बढाना है
अपने लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है
तब सबकी भागीदारी हो
आप भी दे
अपने घर में ही नहीं सबके घर दीया जले
जश्न  मने
दीवाली एक की नहीं सबकी है
सबका योगदान जरूरी है

मैं तो निष्पक्ष हूँ

कुछ लोग निष्पक्ष रहते हैं
अंग्रेजी में कहें तो न्यूट्रल
मेरा तो सबसे अच्छा संबंध है
गलत को गलत नहीं कहना
जानते - बुझते चुप रह जाना
अपनी इमेज को बनाएं रखना
ऐसे बहुत से आसपास हैं
वह किसी के अपने नहीं  हो पाते

द्रौपदी चीरहरण हो रहा था
भीष्म चुपचाप सर नीचा कर बैठे थे
हस्तिनापुर का साथ देना था
पिता को दी हुई प्रतिज्ञा आडे आ गई
चाहते तो वहीं दुर्योधन को सबक सिखा सकते थे
पर नहीं उन्होंने ऐसा नहीं किया
दूसरी तरफ महात्मा विदुर थे
जब अति हो गई
उन्होंने राज्य और दुर्योधन को त्याग दिया
कृष्ण मिलने आए तो विदुर जी के घर गए
प्रेम से साग खाया
वह भीष्म के महल नहीं गए

जटायु पक्षी  था
वह कमजोर था बलशाली रावण के समक्ष
फिर भी अपनी पूरी क्षमता से लडा
एक स्त्री को बचाने के लिए जान भी दांव पर लगा दी
राम को सीता की जानकारी दी
राम उन्हें गोद में लेकर रो रहे थे
पिता की तरह उनका भी अंतिम क्रियाकर्म किया

एक औरत को भरी सभा में नग्न किया जा रहा था
अपनी ही कुलवधू को इस तरह अपमानित होते देख भीष्म चुप रहें
एक नारी का अपहरण हो रहा था
बलपूर्वक उसे ले जाया जा रहा था
उसके बारे में न जानते हुए भी गिद्ध राज जटायु ने अपने प्राणों की आहुति दे दी
यही अंतर था दोनों में
तभी एक तरकश की शय्या पर
दूसरा साक्षात ईश्वर की गोद में

निष्पक्ष,  निष्ठा से किसी एक का नहीं होता
वह स्वयं से प्रेम करता है
तभी विभिषण बदनाम
कुंभकर्ण के प्रति कोई दुर्भावना नहीं
वह राम को ईश्वर मानते हुए भी
अपने भाई के साथ
गलत होते हुए भी
कर्ण का अपने मित्र के साथ
न कुंती न कृष्ण की किसी बात का असर हुआ
सिंहासन के मोह से ज्यादा दोस्त की दोस्ती को तवज्जों दी ।

जीने का मजा

अपनों के आगे झुकने से कोई छोटा नहीं होता
अडकर बैठ रहने से जीना आसान नहीं होता
मन मसोसकर प्यार दबाने की अपेक्षा जताना
दिल से दिल  मिलाना कुछ ज्यादा मुश्किल नहीं होता
रिश्तों को पास लाना  उनकी कदर करना
उस आनंद से बडा कुछ नहीं होता ।
जोड़,  गुणा, घटाना
मान - अपमान से ऊपर उठ
जीना सहज हो जाता है
जीने का असली मजा आ जाता है ।

मैं शब्द आपका हमराज आपका मित्र

कोई मुझे पढे या न पढें
कोई मुझे देखे या न देखें
बस जिसकी रचना हूँ
वह मुझे देखें
समझे
चिंतन मनन करें
दाद दे
जो कुछ लिखें
मन से लिखें
भावना से सराबोर हो लिखे
बडे बडे साहित्यिक शब्दों का प्रयोग भले न हो
सीधा - सादा और सबकी समझ वाला हो
अलंकार रहें तो चार चाँद
न रहे तो भी कोई बात नहीं
जो भी उकेरा हो
वह मन से उकेरे
कागज और कलम सोच - समझ कर चलाए
मैं शब्द  हूँ
मैं चाहता हूँ
आप जब भी लिखों
पूर्ण समर्पण भाव के साथ
कुछ भी लिखना है
इसलिए नहीं
किसी दूसरे का चुराकर
उसकी नकल कर
तोड़ मरोड़ कर नहीं
स्वयं की भावना
स्वयं की रचना
मेरा भी आत्मसम्मान है
वह आप नहीं देंगे तो फिर कौन
यही तो मेरी गुजारिश है
आप मुझे सम्मान दे
मैं आपको साहित्य जगत में सम्मानित करूंगा
मै शब्द
आपका हमराज
आपका मित्र

ऐसा - वैसा के चक्रव्यूह में उलझा जीवन

लगता है कभी-कभी
ऐसा होता तो
वैसा होता तो
यह होता
वह होता
यही तो पते की बात है
जो हम चाहते हैं
वह तो होता नहीं
बनिस्पत और कुछ हो जाता है
हम ऐसा - वैसा के चक्रव्यूह में गोते लगाते रहते हैं
उलझा रहता है जीवन
सब कुछ करने की कोशिश  करते रहते हैं
होता कुछ नहीं
होइए वहीं जो राम रचि राखा

त्याग का तप

आज का भगवद चिंतन।कृष्ण कहते हैं जीवन मे त्याग का तप सर्वोपरि है।जो जीव त्यागी हो जाता है संसार का समस्त वैभव उसके अधीन हो जाता है। यदि हमारे पास धन है तो उसका स्वयं आनन्द लेने के साथ ही उसे परोपकार में खर्च करें ।परहित में सर्वस्व न्योछावर करने वाले भी हम और आप मे से ही होते हैं।इसलिये सामर्थ्य होने पर अवश्य दुसरो की मदद करें पढिये सुन्दर कथा।एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे।
.वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।
.नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।
.उन्होंने उससे पूछा कि.. वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है ? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं ?
.सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान् ! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।”
.नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये।
.सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।
.पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।
.सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया।
.उसने अपने सारे पत्ते झाड़ा डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया।
.पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।
.कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ।
.उन्होंने सेमर से पूछा- पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है ?
.वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- ऋषिराज ! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ।
.संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ।
.मुझे वैभव का गर्व नहीं था वरन् अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था।
.आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।
.नारदजी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं।
.बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है।
.ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।जय जय श्री राधेकृष्ण जी
     Copy paste

Thursday 28 October 2021

मेरी प्यारी शराब

तू है मेरी जान
तेरे बिना मैं बेहाल
मेरे रातों की नींद तू
मेरे दिल का चैन तू
मेरी हमसफर
मेरे अकेलेपन की साथी
मैं और तू
उसमें नहीं किसी और का काम
तुझसे बिछुडना नहीं गंवारा
कोई नाराज हो या खुश
उसकी नहीं कोई परवाह
तू ही खुदा मेरी
तुझमे सारा जग दिखता
मेरी दुनिया तुझमे समाई
एक बार जब थाम लिया
तब सब स्वर्ग का आंनद मिल गया
घूंट घूंट उतरती तब दिल को ठंडक मिलती
अमृत की बूंदों की तरह छलकती
गले को तर करती
कुछ न साथ बस हो तेरा साथ
तब क्या गम
मेरा सब गम तू हर लेती
सब दुख दर्द भूला देती
जब एक घूंट अंदर जाती
तब सब कुछ हो जाता हवा हवा
मदहोशी का आलम
साकी और प्याला
इससे दूजा न कोई प्यारा
तू ही मेरी जान
तू ही मेरा जहान
तुझ बिन लागे सब अधूरा
तू है मेरी प्यारी शराब

Wednesday 27 October 2021

राम का भरत को जवाब

राम राम

एक दिन संध्या के समय सरयू के तट पर तीनों भाइयों संग टहलते श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा, "एक बात पूछूं भइया? माता कैकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिल कर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था? उनके षड्यंत्र के कारण एक ओर राज्य के भावी महाराज और महारानी को चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा तो दूसरी ओर पिता महाराज की दुखद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है, फिर आपने माता कैकई को दण्ड क्यों नहीं दिया?

राम मुस्कुराए। बोले, "जानते हो भरत, किसी कुल में एक चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र जन्म ले ले तो उसका जीवन उसके असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है भरत ?"

भरत संतुष्ट नहीं हुए। कहा, "यह तो मोह है भइया, और राजा का दण्डविधान मोह से मुक्त होता है। एक राजा की तरह उत्तर दीजिये कि आपने माता को दंड क्यों नहीं दिया, समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं, अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।

राम गम्भीर हो गए। कुछ क्षण के मौन के बाद कहा, " अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई दण्ड न देना ही इस सृष्टि का कठोरतम दण्ड है भरत! माता कैकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दण्ड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने अपने स्थान से परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं, पर माता कैकई हर क्षण मरती रही हैं।

अपनी एक भूल के कारण उन्होंने अपना पति खोया, अपने चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, फिर भी वे उस अपराधबोध से कभी मुक्त न हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न और सुखी हो गए, पर वे कभी प्रसन्न न हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दंड क्या दे सकता है? मैं तो सदैव यह सोच कर दुखी हो जाता हूँ कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा।"

राम के नेत्रों में जल उतर आया था, और भरत आदि भाई मौन हो गए थे। राम ने फिर कहा,"और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत! यदि मेरा वनवास न हुआ होता तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता। मैंने तो केवल अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन मात्र किया था, पर तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास न होता तो यह संसार सीखता कैसे कि भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है।"

भरत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए।

                      🙏jai Shri Ram🙏

Copy paste

हमारी जबान का स्वाद

अगर मुझे भूख लगी हो
दो ऑप्शन हो
एक बडा पाव
दूसरा फ्रूट सलाद
तब मैं क्या खाना पसंद करूंगी
मुझे लगता है
बडा पाव
यह भी पता है
यह तला है
मैले और बेसन से बना है
नुकसान दायक है फिर भी
मन है कि मानता नहीं
फ्रूट सलाद न्यूट्रीशन से भरपूर
दिखने में भी रंग-बिरंगी
अलग - अलग फलों का कांबिनेशन
पैसों में भी कुछ ज्यादा अंतर नहीं
दस रूपये में एक अमरूद आ सकता है
दो केले आ सकते हैं
तब पैसों की बात नहीं होती
यह अमीर ही खा सकता है ऐसा नहीं
हम खाना नहीं चाहते
हमारा पेट तो बडा पाव से ही भरता है
तब यह अपनी - अपनी च्वाइस
सूप से ज्यादा हमें गन्ने का जूस और लस्सी भाती है
बर्गर - पिज्जा से ज्यादा बडा पाव और पकौड़ा भाता है
अंकुरित सलाद से ज्यादा हमें भेल पुरी और सेव पुरी भाती है
बडे होटलों की अपेक्षा गली और नुक्कड़ वालों के हाथ का अच्छा लगता है
यह हाइजिन  वगैरह साइड में रख देते हैं
हमें जीभ पर चटखारे ले लेकर खाना अच्छा लगता है
बिसलरी की बाॅटल से ज्यादा प्याऊ का पानी भाता है
काॅफी शाप के बजाय रास्ते की कटिंग चाय भाती है
रुपयों का खेल तो है ही सब
लेकिन हमारे जबान के स्वाद का भी कोई जवाब नहीं।

बारिश आती है

बारिश आती है
खत्म भी हो जाती है
जाती - जाती यह कहते जाती
अब अगले मानसून में
वह क्या सचमुच चली जाती है
शायद नहीं
गीली मिट्टी में नमी छोड़ जाती है
सबको हरियाली दे जाती है
सूखे हुए को नया जीवन दे जाती है
प्यासे को पानी दे जाती है
एक सौंधी सी महक दे जाती है
हर गंदगी को साफ कर जाती है
प्रकृति के हर कण - कण पर अपना छाप छोड़ जाती है
यह कहना कि वह चली गई
यह सही नहीं
वह हमारे साथ बनी रहती है
यादों में भावनाओं में
कुछ अच्छी  कुछ नागवार
पानी की बूँद की तरह मन को तरल रखती है
अभी बहुत कुछ बाकी है
सब कुछ खतम नहीं हुआ
बगिया अगर, सूखी है तो लहलहाएगी भी
खुशी अगर रूठी है तो मानेगी भी
मौसम तो आते जाते रहते हैं
कुछ भी हो तब भी बारिश का इंतजार तो सभी को रहता है
वह खत्म नहीं होती
बस थोड़े समय के लिए कहीं और चली जाती है
न खत्म होती है न हमें छोड़ती है ।

अंतर्जातीय विवाह

अंतर्जातीय विवाह
एक धर्म का दूसरे धर्म में विवाह
जब करते हैं
तब तो समस्या होती ही है
बहुत ब्राड मांइडेड होते हैं
जो इनको खुले दिल से स्वीकारते हैं
कहीं न कहीं
कभी न कभी
ताने , बोली ,व्यंग्य सुनना ही पड जाता है
नीचा देखना ही पडता है
यह सब लोग
हमारे परिवार के सदस्य
अडोस - पडोस
समाज - जाति और धर्म के ही होते हैं
कोई दूसरे नहीं
यहाँ तक तो ठीक है
आने वाली पीढ़ी को भी भुगतना पडता है
इस प्रेम की बहुत बडी कीमत चुकानी पडती है
इतना अंदर हमारे यह धंस कर बैठा है
इंसानियत को दरकिनार कर दिया जाता है
हमारी पहचान
हमारी जाति
हमारा धर्म रह जाता है

तुम्हारा साथ

जीते हैं न मरते हैं
बस तुम्हारी याद में दिन गुजरते हैं
हर सांस में तुम
हर बात में तुम
हर आहट में तुम
हर ख्याल में तुम
हर स्वप्न में तुम
हर जगह बस तुम ही तुम
ऐसा लगता है
मैं भी हो गई तुम

तुमसे ही मेरी दुनिया
तुमसे ही मेरा जहान
तुमसे ही मेरी आस
तुमसे ही मेरा संसार
तुम्हारा साथ सबसे खास
बस एक तुम हो मेरे साथ
तब किसी की क्या बिसात
नहीं किसी की परवाह
सबसे बेपरवाह
बस बना रहें
तुम्हारा साथ

यह है एक गृहिणी की आपबीती

करना चाहती हूँ अपने मन की
जब मेरा जी चाहे जो चाहे
वह सब करना
न कोई पाबंदी न कोई बंधन
सोने का मन हो तो सोते रहूँ
देर रात तक टेलीविजन देखते रहूँ
सुबह टहलने जाने का मन हो
तब निकल जाऊं
आराम से तफरी कर आऊ
नुक्कड़ पर खडे हो कटिंग चाय की चुस्कियां लूं
उगते हुए सूरज को निहारू

ऐसा नहीं होता
यहाँ दूसरों का ख्याल रखना पडता है
दूसरों को समय से जगाना पडता है
देर रात तक इंतजार करना पडता है
टेलीविजन पर सबकी पसंद
नहीं मेरी पसंद
सुबह सबके चाय - नाश्ते का प्रबंध
टहलने की छोड़ों
सुबह घर के कामों में आपाधापी
जो रात तक अनवरत जारी
बस दोपहर में थोड़ा विश्रांति
वह भी कोई  अकस्मात आ गया
डोर बेल बज गई
फोन की घंटी घनघना उठी
तब फिर उठिए बैठो

संझा के चाय - नाश्ता से लेकर खाने तक की तैयारी
अपनी पसंद छोड़ सबकी पसंद का ख्याल रखना
बचा हुआ खाना स्वयं ही खाना
अन्न का नुकसान नहीं
दूसरे खाएंगे नहीं
यह सब करते-करते रात हो जाना
सब निपटा कर बिस्तर पर पड जाना
यह सोचते- सोचते
सुबह क्या बनेगा
नींद के आगोश में समा जाना
मन का करना क्या
सोचने की भी फुरसत नहीं
यह है एक गृहिणी की आपबीती