Tuesday 6 December 2016

शांति और अशांति के बीच झूलता मनुष्य

शांति भी बोलती है बस उसका अहसास हो
रात्रि की नीरव शांति हो या प्रभात की बेला
चिडियॉ की चहचहाहट हो या रात्रि कीटक की ध्वनि
समुद्र की लहरों की आवाज या पत्तों की सरसराहट
मंदिर की घंटियॉ और शंखनाद
क्या वास्तव में शांति चाहता है मानव !?
ये जयघोष ,उल्लास ,भजन                                बम- फटाका .बैंड- बाजा,कानफोडू संगीत
हर उत्सव में घूम- घडाका
यही तो उसकी ख्वाहिश रही
यहॉ तक कि रात में भी उमडते- घूमडते विचार उसे शांत नहीं कर पाते
वह सबका आनन्द लेना चाहता है
शांति- शांति करता जरूर है पर शांति उसे भाती नहीं
मस्तिष्क चलबचल है ,हलचल होना स्वाभाविक है
हलचल के साथ जीना चाहता है
निर्माण स्वयं उसका है तो परिणाम भी उसे ही भुगतना है
चुप रहकर भी बोलता है
जब वाकई बोलता है तो सबको डवाडोल कर जाता है
शांति की खोज में पर्वतीय स्थल की सैर पर जाता है
पर वहॉ भी आवाज के बिना नहीं रह सकता
शांति और अशांति के बीच झूलता मानव
स्वयं समझ नहीं पाता कि
वह शांति चाहता है या नहीं

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