Wednesday 29 April 2020

उन पशुओं की भी तो सोचे

आज हम घरों में बैठे हैं
अपने अपने घरों में
सुकून से आराम से
मन मर्जी से खा पी रहे हैं
मनोरंजन कर रहे हैं
फिर भी एक मायूसी है
बेचैनी छायी है
क्योंकि हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं
आज मोर और हिरन
नाच रहे हैं
कुलांचे भर रहे हैं
कभी हमें ऐसा लगा
कि हमने सदियों से जानवरों को कैद कर रखा है
उनके गले में फंदा डाल रखा है
पैरों में बेडियाँ
पिंजरे में कैद कर रखा है
सर्कस में नचा रहे हैं
खाना पानी और देखभाल कर रहे हैं
पर वह अपने स्वार्थ के लिए
उनका घर जंगल काट डाला
कभी-कभी वे बाहर आते हैं
तब दौडा दौडा कर मार डालते हैं
आज हम अपने घर में भी बंदी महसूस कर रहे हैं
तब उन पशुओं की भी तो सोचे

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