Friday 22 March 2024

हर मर्द की लगभग यही दास्ताँ

मत सोच कि तूने क्या किया
तुझे ऐसा लगता है कि यह किया
लोगों को लगता है कुछ नहीं किया 
उन्हीं लोगों को जिनके लिए किया
त्याग और बलिदान किया 
इच्छाओं का दमन किया
दिन रात एक किया 
न चैन से खाया न सोया 
न मौज - मजा किया
बस कर्तव्यों के बोझ तले दबे रहे 
माता-पिता, भाई - बहन , पत्नी - बच्चे 
सबका उलाहना सुनता रहा फिर भी करता रहा 
आज स्वयं पर आ पडी है
मुझमें दस कमियां निकाली जा रही है
आज लग रहा है
मैं क्या हूँ 
मेरा अस्तित्व क्या है
कहने को तो मर्द हूँ 
यह तो मेरा कर्तव्य बनता है सब करते हैं 
मैं अकेला और अनोखा तो नहीं 
मर्द और पुरुष भी इंसान है
भावनाएं हैं 
हर मर्द की लगभग यही दास्ताँ 
जिंदगी भर चलता रहा तब भी यही सुना 
चले ही ना दौडे कहाँ 
कुछ किया ही नहीं। 

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