मेरे सभी गुरुजनों को प्रणाम
बचपन से आज तक जो भी सीखा जिससे भी सीखा
सबका आभार
वैसे गुरु परम्परा बहुत पुरानी है
हर परिवार का कुल का गुरू रहता था
आजकल यह ज्यादा प्रचलन में है
साधु - महात्मा की बाढ सी है
भीड एकत्रित किया जाता है
न जाने कितने पैसों से इंतजाम किया जाता है
हजारों - लाखों की संख्या में जमा होते हैं
ये सब गुरू जीने का मार्ग बताते हैं
किस तरह से रहना
जाप करना इत्यादि
मैं कभी-कभी टेलीविजन पर इनको देखती हूँ
पता नहीं क्यों इनकी बातें मुझे रूचती नहीं है
मैं अपने और ईश्वर के बीच किसी की मध्यस्थता नहीं चाहती
जो कहना है उनसे कहूँगी
वैसे भी वे तो अंतर्यामी है
अपने भक्तों पर कृपा करते ही हैं
कितने ही गुरु ऐसे भी हैं जो स्वयंभू भगवान बन बैठे और बाद में जेल की हवा खाई
इससे अच्छा तो हैं ईश्वर को ही गुरु मानों
भगवद्गीता से बडा गुरू कोई सीख नहीं दे सकता
प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से हर किसी से कुछ सीखा है
आज तक सीख ही रहे हैं
जिंदगी तो स्वयं ही गुरू है
पग - पग पर सिखाती है
न जाने कब और कितने रूपों में
किस - किस से
निर्जीव- सजीव रूप में
पशु - पक्षियों से लेकर पेड़ , नदी , पहाड़ तक
मनुष्य तो हम जुड़े ही हुए है
दोस्त , दुश्मन, पडोसी , रिश्तेदार , हमारे अपने
यहाँ तक कि सफर और सडक पर चलते सहयोगी और सहयात्री भी
जाने - अनजाने हर उस गुरु को नमन
जिनसे हमने कुछ भी सीखा हो
जिन्होंने जिंदगी का मार्ग दर्शन किया हो
क्योंकि व्यक्ति अकेला तो कुछ भी नहीं है
उसको व्यक्ति बनाने में सभी का योगदान
गुरू और शिष्य
देनेवाला कैसा और लेनेवाला कैसा
कबीर का दोहा है
अगर गुरू अंधा होगा तो वह रास्ता क्या दिखाएगा
अपने तो अपने दूसरों को भी लेकर गिर जाएंगा
वही बात शिष्य पर भी लागू
ज्ञान देने वाला क्या करेगा अगर लेनेवाला ही योग्य न हो
खैर यह सब तो जीवन दर्शन हो गया
हर गुरू को तहे दिल से नमन और बहुत बहुत धन्यवाद।