Thursday 14 March 2024

गुम होता आदमी

क्या हम बंजर नहीं हो रहे हैं 
क्या हम नीरस नहीं हो रहे है
हम दिखावा कितना कर रहे हैं 
जो हैं वह नहीं दिखाते 
जो नहीं हैं उस रूप में अपने को पेश करते
एक मुखौटा ओढ रखा है हमने
बस अभिनय कर रहे हैं 
तोल - मोल कर बोलना 
हंसना - रोना - गुस्सा 
कब - कहाँ क्या करना है सबका हिसाब 
खुल कर मिलना नहीं 
हर वक्त एक अनुशासन में रहना 
दोहरी जिंदगी जीता हुआ आदमी 
भावना मर रही
बंजर हुआ जा रहा
पुतला मात्र दिख रहा
सब कुछ संचालित 
स्वाभाविक वृत्तिया गुम 
उसी में गुम होता आदमी 

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