Sunday 11 September 2016

यह मेरा घर आज है कितना सूना - सूना

आज मैं बैठी हूँ अपने घर में
बहुत दिनों से याद आ रही थी
क्या कुछ नहीं दिया इस घर ने
हर सुख- दुख में सहभागी रहा
बच्चे बडे हुए ,पढाई - लिखाई सब इसी में
एक समय था जब यह घर गुलजार रहता था
मेहमानों और रिश्तेदारों से भरा रहता था
बच्चों के दोस्तों से घिरा रहता
न जाने कितनों का आश्रय था यह घर
इस दरवाजे से कभी कोई भूखा नहीं गया
कितनी भी संख्या हो मेहमानों की
हर किसी को अपने में समा लेता
पूजा से लेकर शादी- ब्याह
मुंडन से लेकर जन्मदिन
सब धूमधाम से यही संपन्न हुआ
बच्चों के आपस में लडाई - झगडे से
खाना- पीना और सोने तक को लेकर विवाद
पर हर कोई अपनी जगह तलाश ही कर लेता
यहॉ तक कि टेलीविजन देखने के लिए भी
बाहर दो- चार ऑखें झाकती रहती
यही मैं सास बनी
नानी बनी ,दादी बनी
यही आकर भगवान से अटूट नाता जुडा
संतों और महात्माओं से परिचय
भगवान कृष्ण की सेवा करने का अवसर
यहॉ ईश्वर के फोटों पर फूल सजे रहते 
दरवाजे पर आलीशान तोरण लगा रहता
घर प्रसाद से भरा रहता
कोलाहल और शोरगुल तो अभिन्न हिस्सा थे
आज बच्चे अपने - अपने घरों में खुश है
पर उनके नए जीवन की नींव भी यही से पडी
कुछ बडे दुख भी आए पर वह भी बीत गये
बहुत दिनों के बाद पुरानी स्मृतियॉ याद आ रही है
आज इससे बडे घर में रह रही हूँ
पर इसकि जगह कोई नहीं ले सकता
यह प्रतीक है अपनेपन का
परिवार के हर सदस्य की भागीदारी का
घर केवल दीवारों से नहीं बनता
उसमें हमारी आत्मा समाई रहती है
अपनों का प्रतिबिम्ब होता है घर
आज यह सूना पडा है
पर मन इसकी यादों से भरा पडा है
और वह अमूल्य है
इसकी जगह कोई नहीं ले सकता

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