हमने भी देखा है वह जमाना
जो आज याद आती तो है
आने के साथ चेहरे पर मुस्कान ले आती है
कहीं कोई गिला - शिकवा नहीं
जो जीया मजे से जीया
जिंदगी के हर रूप को जीया
वह जमाना था
जब सरकारी स्कूल में पढने पर कोई शर्म नहीं
अपनी किताबें बेचते थे
और सेकंड हैंड किताबें लेते थे
नोटबुक पर अखबार या कैलेंडर का कवर चढाते थे
कपडा इस्तरी हुआ है या नहीं
इसकी कोई फिक्र नहीं थी
जूते पर चाॅक घिस लेते थे
पीठ पर खाकी कपडे का बस्ता या हाथ में स्टील की पेटी होती थी
बस के पैसे ही मिलते थे
कभी-कभी पांच- दस पैसे ज्यादा मिल गए
तब सेव - मुरमुरा या छोटा समोसा खा लेते थे
रावलगाव की टाॅफी और आंरेज कलर की गोली
स्कूल के बाहर कच्ची कैरी की फेंके, बेर , अमरूद खूब चटखारे लेकर खाते थे
गोला वाले से गोला कुछ खाते कुछ कमीज पर गिरते
फिर बांहों में ही मुंह पोंछ लेते थे
नाश्ते के नाम पर अचार और रोटी ले जाते थे
नहीं कलरफुल डिब्बा न पानी की डिजाईन दार बोतल
नल में से अंजुली से पानी पी लेते थे
न पैरेन्टस छोड़ने आते थे न कोई मोटरसाइकिल से
बेस्ट की बस और नहीं तो आस पडोस के बच्चों के साथ
धमा-चौकड़ी करते हुए
पनिशमेंट अक्सर होते थे
अध्यापक की मार खाते थे पर घर आकर नहीं बताते थे
नहीं तो घर पर दो थप्पड़ और
रिजल्ट पोस्टमैन लाता था और आस पडोस के सब जमा रहते थे उत्सुकता वश
फेल हुए तो मार पास हुए तो भी पीठ पर थपका शाबासी का
परसेन्ट का चक्कर तो था ही नहीं
किसी के घर जाएं कोई डर नहीं
अपने से ज्यादा दूसरों के घर डेरा
कभी मन में कमी की भावना नहीं आई
माता-पिता की परिस्थिति को समझते थे
जबरदस्ती कोई जिद नहीं
तेरी साडी मेरी साडी से सफेद क्यों
यह भावना तो थी ही नहीं
किसी एक के घर टेलीविजन
किसी एक के घर फोन
वह भी लोग सार्वजनिक समझते थे
डांट सुनने पर और द्वार बंद करने पर भी खिड़की से झांकते
हम तो चिमटा में ही खुश है तुम्हारे जैसे मंहगा खिलौने की जरूरत नहीं
प्रेमचंद के हमीद जैसे
भाडे की साईकिल लाते थे बाँट बाँट कर चलाते थे
गोटी , कबड्डी, छुपाछुपी , खो - खो और घर - घर , टीचर - टीचर , पुलिस - चोर यह हमारे खेल होते थे
सुबह उठते ही मार पडती
खेल कर आते फिर मार पडती
न पढने पर मार पडती
लगता मार नहीं दुलार था
हम भी बेशर्म थे बस दो मिनट बाद सब भूल जाते थे
घर से भागना या आत्महत्या करना यह तो विचार ही नहीं कभी आए
क्योंकि हम जीवन जी रहे थे
अनुभव की भट्टी में तप रहे थे
पग - पग पर अपमान , ताने सुनने की आदत डाल रहे थे
इसलिए हम सबको झेल सके
कार्यस्थल , समाज , पडोसी क्या और भी जगह
जिंदगी आसान नहीं होती
अगर मजबूत नहीं तो टिकोगे नहीं
दुनिया- समाज जीने नहीं देंगे
इसलिए वह बचपन की नींव ऐसी मजबूत
हम सबको झेल सके
झेल भी रहे हैं
कोई गिला - शिकवा नहीं
हमें यह नहीं मिला
वह नहीं मिला
पैरेन्टस के लिए मन में सम्मान
जो भी मिला बहुत मिला