Thursday 25 February 2021

शहर गाँव पर भारी पड गया

शहर गाँव पर भारी पड गया
वह अपनापन कहीं खो गया
न वह लोग रहें
न वह रंगत रहीं
विकास सब पर भारी पड गया

अब भोर सुबह मुर्गे की कुकुडू कु नहीं सुनाई देती
वह घर में मुंह अंधेरे जाता पीसती
अनाज को ओखली में कुटती
वह डिबरी की रोशनी में काम करती
बुहारती और बडबडाती
कहीं नहीं दिखती

द्वार पर गाय - बैलों की रंभाने की आवाज
उनको बरदऊल से निकालते
चारा - पानी देते
गोबर बटोरते
खटिया पर बैठ बतियाते
चिलम फूंकते
बच्चों को डाटते - फटकारते
अब लोग नहीं दिखाई देते

अब तो द्वार भी सूना
सब अपने - अपने कमरे में
अब पीपल और आम के पेडो पर बैठ झूला झूलती
गीत गुनगुनाती
आवाज चाहे कैसी भी हो
गीत तो गाना ही है
सुरीली या बेसुरी
कोई फर्क नहीं पड़ता
एक जीवंतता
जिंदगी की जीवटता का दर्शन
अभावों में भी खुशी का इजहार
वह कहीं लुप्त हो रहा

समष्टिवाद से व्यक्तिवाद
गाँव से शहरीकरण की ओर अग्रसर
कहीं न कहीं कुछ छूटा जा रहा है
विकास की इस यात्रा में
शहर गाँव पर भारी पड गया

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