Monday 20 June 2016

ऑख भर आई क्यों किसी बात पर

बोलते - बोलते ऑख भर आई अनायास ही
जैसे आँसू निकलने को बेताब हो रहे हैं
लाख कोशिश के बावजूद थमने का नाम नहीं ले रहे
छुपाते - छुपाते छलक ही आए पलकों पर
बाहर बारीश की बूंदे गिर रही है
यहॉ ऑसू बह रहे हैं
यह ऑसू क्यों ऐसे है ,असमय छलक जाते हैं
बादलों से आसमान भरा हो तो बरस जाता है
ऑसू शायद मन भर आने पर
मन बेताब हो उठा है जब तक यह छलक न जाए
कुछ हल्का हो जाएगा
यही तो जरिया है भावना व्यक्त करने का
हर किसी की सीमा होती है
रोते- रोते ऐसा न हो कि ऑखे ही पथरीली बन जाय
कितना गम का बोझ उठाएंगे
जिनके लिए ऑसू आ रहे हैं ,उन्हीं के लिए बचाना भी है ,ऐसा न हो कि रोने के लिए जिंदगी ही न बचे
इन्हीं ऑखों से हँसना भी है
आज गम में छलके है ,कल खुशी में भर आए
इनका काम तो बहना पर हमारा संभालना
जिंदगी के नए मायने समझने होगे
रोने के साथ हँसना भी सीखना होगा
जिंदगी की स्याही को कलम में डुबोकर कागज पर उतारना होगा
केवल ऑसू ही क्यों ,शब्द क्यों नहीं
जहॉ शब्द लाचार और आवाज अस्फुट हो जाती है
वहीं तो ऑसू साथ देते हैं
ऑसू तो ऑसू है न जाने कब छलक जाय

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